Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 8
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-470 जैन- आचार मीमांसा-2 निश्चय राखी लक्षमा, पाले जे व्यवहार। ... ते नर मोक्ष पामशे संशय नहीं लगार।। निश्चय दृष्टि हमारे जीवन के लक्ष्य को बताती है, और व्यवहार दृष्टि उस लक्ष्य को आचरण के द्वारा कैसे पाया जा सकता है, उसकी चर्चा करती है अतः नैतिक साध्य निश्चयदृष्टि का विषय है, और उस साध्य की उपलब्धि का मार्ग व्यवहारदृष्टि का विषय है। जैन आचार्यो ने नैतिकता का निरपेक्ष पक्ष तो माना था, किन्तु केवल कर्म संकल्प के क्षेत्र तक, बाह्म आचरण के संदर्भ में उन्होंने उसे सापेक्ष ही माना है। नैतिक साध्य निश्चयदृष्टि का विषय है और नैतिक साधना मार्ग व्यवहार दृष्टि का विषय है। इसे ही जैन दर्शन में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के रूप में ही बताया गया है। उत्सर्ग मार्ग की नैतिकता भी देशकाल और व्यक्तिगत परिस्थितियों के अन्तर्गत ही होती है, उसके बाहर नहीं। नैतिक आचरण का बाह्य प्रारूप सापेक्ष रूप से देशकाल एवं व्यक्तिगत परिस्थितियों से प्रभावित होता है। जैनदर्शन कहता है कि उत्सर्ग मार्ग वह सामान्य मार्ग है जिस पर सामान्य अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को चलना चाहिए, जबकि व्यवहार मार्ग व्यक्ति विशेष की आचरण की प्रक्रिया को उसकी विशिष्ट परिस्थिति पर आधारित करता है। जैन मान्यता के अनुसार नीति में सापेक्षता और निरपेक्षता-दोनों का ही स्थान है। नैतिक नियम देश-काल, समाज और वैयक्तिक परिचयों से निरपेक्ष है, यह शाश्वत् सत्य है, लेकिन नैतिक जीवन में अपवादमार्ग के लिए भी स्थान रहा हुआ है, अपवाद का निर्धारण देशकाल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों के आधार पर होता है। नीति में सापेक्षता और निरपेक्षता दोनों का ही स्थान है। नीति का एक बाह्य-आचार-पक्ष होता है, जो सापेक्ष होता है। किन्तु नीति का एक आन्तरिक पक्ष है जो निरपेक्ष हो सकता है। हिंसा का सकल्प कभी भी नैतिक नहीं हो सकता, किन्तु हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो यह आवश्यक नही है। किसी को सुरक्षा प्रदान करने के लिए अथवा आत्मरक्षा के लिए अपवादमार्ग भी अपनाया जाता है। नीति में सापेक्षता और निरपेक्षता- दोनों का क्या स्थान है और किस रूप में है यह जानने के लिए नीति के विविध पक्षों को समझ लेना होगा। नीति का एक बाह्य पक्ष

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