Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 10
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-472 जैन- आचार मीमांसा-4 सापेक्षिक-नैतिकता की धारणा को प्रस्तुत करते हैं, अतः हमें सामाजिक-सन्दर्भ में आचरण का मूल्यांकन सापेक्ष रूप में ही करना होगा। विश्व में ऐसा कोई भी सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है, जो हमारे निर्णयों का आधार बन सके। कुछ प्रंसगों में हम अपने नैतिक-निर्णय निष्पन्न कर्म-परिणाम कर देते हैं, तो कुछ प्रंसगों में कर्म के वांछित या अग्रावलोकित परिणाम पर और कभी कर्म के प्रेरक के आधार पर भी नैतिक-निर्णय दिए जाते हैं, अतः कर्म के बाह्य-स्वरूप और उसके सन्दर्भ में होने वाले नैतिक-मूल्यांकन तथा निरपेक्ष नहीं हो सकते, उन्हें सापेक्ष ही मानना होगा। पुनः, कर्म या आचरण किसी आदर्श या लक्ष्य का साधन होता है और साधन अनेक हो सकते हैं। लक्ष्य या आदर्श एक होने पर भी उसकी प्राप्ति के लिए साधना के अपनी स्थिति के अनुसार अनेक मार्ग सुझाए जा सकते हैं, अतः आचरण की विविधता एक स्वाभाविक तथ्य है। दो भिन्न सन्दर्भो में परस्पर विपरीत दिखाई देने वाले मार्ग भी अपने लक्ष्य की अपेक्षा से उचित माने जा सकते हैं। पुनः, जब हम दूसरे व्यक्तियों के आचरण पर कोई नैतिक-निर्णय देते हैं, तो हमारे सामने कर्म का बाह्य-स्वरूप ही होता है, अतः दूसरे व्यक्तियों के आचरण के सम्बन्ध में हमारे मूल्यांकन और निर्णय सापेक्ष ही हो सकते हैं। हम उसके मनोभावों के प्रत्यक्ष द्रष्टा नहीं होते हैं और इसलिए उसके आचरण के मूल्यांकन में हमको निरपेक्ष निर्णय देने का कोई अधिकार नहीं होता है, क्योंकि हमारा निर्णय केवल घटित परिणामों पर ही होता है। अतः, यह निश्चय ही सत्य है किसी कर्म के बाह्य-पक्ष या व्यावहारिक-पक्ष की नैतिकता और उसके सम्दर्भ में दिये जाने वाले नैतिक-निर्णय दोनों ही सापेक्ष होगे। नीति और नैतिकआचरण को परिस्थिति-निरपेक्ष मानने वाले नैतिक-सिद्धान्त शून्य में विचरण करते हैं और नीति के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट कर पाने में समर्थ नहीं होते है। किन्तु नीति को एकन्तरूप से सापेक्ष मानना भी खतरे से खाली नहीं है। (1) सर्वप्रथम, नैतिक-सापेक्षतावाद व्यक्ति और समाज की विविधता पर तो दृष्टि डालता है, किन्तु उस विविधता में अनुस्यूत एकता की उपेक्षा करता है। वह दैशिक, कालिक, सामाजिक और वैयक्तिक

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