Book Title: Jain Aachar Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 12
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-474 जैन - आचार मीमांसा-6 जिनमें नैतिक-आदर्शो की सिद्धि की जाती है, सदैव परिवर्तनशील हैं और नैतिक-नियमों, नैतिक-कर्तव्यों और नैतिक मूल्यांकन के लिए इन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन करना आवश्यक होता है, किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि नैतिक-सिद्धान्त इतने सापेक्षित हैं कि किसी सामाजिक-स्थिति में उनमें कोई नियामक-शक्ति ही नहीं होती। शुभ की विषयवस्तु बदल सकती है, किन्तु शुभ का आकार नही; दूसरे शब्दों में, नैतिकता का शरीर परिवर्तनशील है, किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं। नैतिकता का विशेष स्वरूप समय-समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता है, जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक-स्तर और परिस्थिति बदलती रहती है, किन्तु नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर रहता है। नैतिक-नियमों में अपवाद या आपद्धर्म का निश्चित ही स्थान है और अनेक स्थितियों में अपवाद-मार्ग का आचरण ही नैतिक होता है, फिर भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि अपवाद कभी भी सामान्य नियम का स्थान नहीं ले पाते हैं। निरपेक्षतावादं के सन्दर्भ में यह एक भ्रान्ति है कि वह सभी नैतिक-नियमों को निरपेक्ष मानता है। निरपेक्षतावाद भी सभी नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करता, वह केवल मौलिक नियमों की सार्वभौमिकता ही सिद्ध करता है। वस्तुतः नीति की वास्तविक प्रकृति को समझने कि लिए निरपेक्षतावाद और सापेक्षतावाद- दोनों ही अपेक्षित हैं। नीति का कोनसा पक्ष सापेक्ष होता है और कौनसा पक्ष निरपेक्ष, इसे निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है : (1) संकल्प की नैतिकता निरपेक्ष होती है और आचरण की नैतिकता सापेक्ष होती है। हिंसा का संकल्प कभी नैतिक नहीं होता, यद्यपि हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक नहीं। नीति में जब संकल्प की स्वतन्त्रता को स्वीकार कर लिया जाता है, तो फिर हमें यह कहने का अधिकार नहीं रहता कि संकल्प सापेक्ष है, अतः संकल्प की नैतिकता सापेक्ष नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, कर्म का जो मानसिक-पक्ष है, बौद्धिक-पक्ष है, वह निरपेक्ष हो सकता है, किन्तु कर्म का जो व्यावहारिक-पक्ष है, आचरणात्मक-पक्ष है, वह सापेक्ष है, अर्थात् मनोमूलक-नीति निरपेक्ष होगी और आचरणमूलक-नीति सापेक्ष होगी।

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