Book Title: JAINA Convention 2015 07 Atlanta GA
Author(s): Federation of JAINA
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 69
________________ 2015 JAINA Convention Jainism World of Non-Violence हिंसा का मूल कारण एवं सब्दी अहिंसा -डॉ0 संजीवकुमार गोमा, जयपुर अहिंसा परमो धर्म:- महाभारत में प्रयुक्त इस सूक्ति को जीवन में उतारने की उपयोगिता आज सभी प्रबुद्धजन महसूस करने लगे है। विश्व का प्रत्येक देश अहिंसा की आवश्यकता और महत्व को समझाने लगा है क्योंकि वर्तमान समय में चारों ओर विकिा रूपों में बढ़ती हुई हिसा ने मानव मन मस्तिष्क को प्रकझोर कर रख दिया है। आज सभी ओर हिंसा का ताण्डव होता दिखाई दे रहा है। ऐसे माहौल में हिंसा को मिटाने एवं अहिंसा को अपनाने का उपदेश और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है। सभी इसे स्वीकार करते हैं। यदि एक हिसक या हत्यारे से भी पूछा जाये कि हिंसा करनी चाहिये या नहीं? तो उसका भी यही जवाब होगा कि हिंसा करना बुरा काम है। वह भी अपने बच्चे को अहिंसा काही पाठ पवाना चाहता है। जब प्रत्येक व्यक्ति हिंसा को पुरा एवं अहिंसा को भला मानता है तो फिर जगत में हिसा होती ही क्यों है? जैन मनीषियों ने इस संदर्भ में बहुत ही सूक्ष्मतम चिन्तन प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि हिंसा जगत में नही अपने भीतर उत्पन्न होती है। उसका जन्म अपने भावों में होता है और प्रकटता बाहर दिखाई देती है। अर्थात हिसा होती है अन्दर और दिखती है बाहर। वास्तव में अपने अन्तरंग में उत्पन्न होनेवाले विकृत परिणाम ही हिसा है। वे परिणाम जब भीतर नहीं समाते तो बानी में फूट पडते है और फिर काया के माध्यम से बाहर में प्रकट होने लगते है। इसप्रकार बाहर में दिखाई देनेवाली हिसा तो अंतरंग हिंसा का ही प्रतिकल है। अंतरंग में निर्मलता हो तो सिर्फ जीवों के प्राणघात को हिसा नहीं कहा जाता है। हिंसा में प्रमाद परिणति (कवायभाव) मूल है। प्रमाद/कपाय होने पर ही दूसरों के प्राणों का पात हिंसा कहलाता है। आचार्य उमास्वामी के शब्दों में प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपण हिंसा। - तत्त्वार्थसूत्र. 7/13 इसलिये जगत में दिखने वाली हिंसक घटनाओं के कारणों पर सूक्ष्मता से विचार करे तो क्रोध, द्वेष और ईया जैसे मनोविकार ही हिंसा के कारण दिखाई देते हैं। पर कुछ और गहराई से विचार करें तो ये विकार भी स्वयमेव नहीं होते, असफल और असन्तुष्ट रागवृत्ति ही क्रोध को जन्म देती है। द्वेष और ईया का जनक भी वस्तुतः राग ही है। यही कारण है कि हिंसा और अहिंसा की सूक्ष्म विवेचना करते हुये आचार्य अमृतचन्द्र ने देषादि शब्द का प्रयोग न कर उसके स्थान पर रागादि शब्द का प्रयोग किया है। यद्यपि इसमें देष भी गर्मित है, तथापि देष के मूल में भी असन्तुष्ट राग ही छिपा है। वे हिसा-अहिंसा को परिभाषित करते हुये लिखते है अप्रादुर्भाव खलु राणादीनाम् भवत्याहिति। संचामेवोत्पत्तिहिति जिनागमस्य पोषः।। -पुरुषार्थीसियुपाय/44 अर्थात् आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति ही हिसा है, यही जिनागम का सार है। दुनिया में जितनी भी हिसा, हत्यायें, मार-पीट, लडाई-झगडा होता है, उन सबके पीछे तीन ही मुख्य कारण हैं-जर-जोरु और जमीन जर माने धन सम्पत्ति, रुपया-पैसा, दौलत-वैभव जोशमाने पत्नी/स्त्री। तथा जमीन माने जगह-इसके अंतर्गत घर, मकान, क्षेत्र, राज्य गर्मित है। इतिहास इस बात का साथी है कि आज तक जो भी युद्ध हुये है. वे इन्ही कारणों से हुये है। इन तीनों ही कारणों के मूल में राम ही है। (1) राम-रावण के बीच युद्ध स्त्री-पान के कारण ही हुआ था। राम को तो अपनी पत्नी से राग था ही. पर तवन के मन में भी सीता के प्रति देष नहीं था. परस्त्री सेवन के भावरूप खोटा कम ही था। 5) महाभारत के युद्ध में भी जमीन के प्रति सम ही मूल कारण था। कौरवों की बात तो छोठिये पाण्डवों के मन में भी गांवों के प्रति तीट सम ही था, जिसके न मिलने पर वे युद्ध के लिये तैयार हो गये। 5) धन, पैसे के प्रति लोप/राग के कारण होने वाले लडाई-अगो, हत्याओं आदि की चर्चाओं से तो दैनिक समाचार पत्र भरे ही रहते है। अतः हिंसा का मूल कारण राग रूप आन्तरिक मनोविकार ही है। द्वेष, क्रोध आदि राम के ही सहचारी कारण है। इनके होने पर बाहर में पर प्राणों का पात होना द्रव्यहिंसा कहलाता है, और ये सब आतरिक विकार भावहिंसा। अंतरंग से बहिरंग की व्याप्ति है. अतःकहा जा सकता है कि आन्तरिक विकारों से युक्त विकृत मानसिकता ही बाहा हिंसा को जन्म देती है। इसीलिये जैन मनीषियों ने बाहा हिसा की तुलना में अंतरंग हिंसा को मिटाने पर अथवा अंतरंग अहिंसा के पालन पर विशेष बल दिया है। यहाँ प्रश्न संभव है कि मोह-राग-देष, काम, क्रोध, लोभ आदि विकृतियों तो मानवीय स्वभाव है। गृहस्थ दशा में ये विकार हीनाधिक रूप से सभी में पाये जाते है। ऐसी स्थिति में अहिंसा का पालन कैसे संभव होगा? यद्यपि यह बात सत्य है कि गृहस्थ दशा में उक्त प्रकार के सर्व विकारी भावों के अभाव रूप अहिसा पालन संभव नहीं है, क्योंकि ऐसी पूर्ण अहिंसा का पालन तो साधु जीवन में भी नहीं होता, पूर्णत: अहिंसा का पालन तो पूर्ण वीतरागी भगवान होने पर अरिहंत/सिद्ध दशा में ही होती है। तथापि हमारी भूमिका में भी अहिंसा का पालन किया जा सकता है. यथायोग्य हिसा से बचा जा सकता है। जैन संतों ने गृहस्थ जीवन में होने वाली हिंसा का वर्गीकरण चार रूपों में किया है1. संकल्पी हिसा 2 उद्योगी हिसा आरंभी हिसा 4.विरोधी हिंसा। अत्यन्त निर्दयी परिणाम होने पर संकल्प अर्थात् इरादे पूर्वक किया गया प्राणघात संकल्पी हिसा है। व्यापारादि कार्य करते समय न चाहते हुये भी पर जीवों का प्राणघात होना उद्योगी हिसा है तथा गृहस्थ जीवन में भोजनादि कायों को करते समय सावधानी रखते हुए भी जो हिसा होती है, वह आरमी हिसा है। अपने परिवार, समाज, देव-शास्त्र-गुरु,देश आदि पर संकट आ जाने पर स्वयं तथा उनकी सुरक्षा/बचाव के लिये की गई हिंसा विरोधी हिंसा है। उक्त चार प्रकारों में से गृहस्थ जीवन में संकल्पी हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग होना चाहिये, क्योकि इसका त्याग पूर्णतः व्यक्तिगत है, यह हमारी चाहा परिस्थिति की अपेक्षा नहीं रखता। इसका सीधा संबंध हमारे आंतरिक विकृत एवं क्रूर भावों से है। शेष तीन प्रकार की हिंसा न चाहते हुये भी परिस्थितियों पर निर्भर करती है। किन्तु ज्ञानी के जीवन में जैसे-जैसे अंतरंग निर्मलता अवती जाती है. वैसे-वैसे राग-द्वेष आदि कयाय भावों की मंदता/अभाव होने पर भूमिकानुसार इनका भी अभाव होता जाता है। अतः हमें अपनी भूमिका के अनुसार सर्व प्रथम संकल्पी हिंसा का त्याग करना चाहिये। तदुपरान्त भेदज्ञान के अभ्यास से यथासंभव मोह, राग, द्वेषादि विकारों को जीतते हुये सूक्ष्म अहिंसा की ओर अग्रसर होने की भावना माना चाहिये। यदि अन्य प्रकार से कहा जाये तो अहिंसा को अपने जीवन में अपनाने के लिये सर्व प्रथम पर में सुख बुद्धिरूप निध्यामान्यता को छोडना होगा, मन में विषय भोगों के प्रति लालसा को कम करना होगा। क्योंकि पर पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि ही इन विकारों का आधार है। धन, सम्पत्ति आदि बाहा वैभव की प्राप्ति में बाधा ही क्रोधादि विकारों को जन्म देती है। अत: हमें अपने पुण्य-पाप कर्म के उदय से जो भी सामग्री प्राप्त है, उसी में संतोष रखकर विश्व शांति की प्रेरक अहिंसा को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिये। हम सभी हिंसा और अहिंसा के वास्तविक स्वरूप को समझकर, उसे जीवन में उतारकर परिपूर्ण सुखी हो - इसी भावना से विराम लेता हूँ। -डॉ0 संजीवकुमार गोधा उबल एम.ए. नेट. एमफिल, पीएच डी जयपुर (भारत) Sanonlider Manandascler ener fotropowerahti-fiamge ceurs M.136 'Clejhict .hapy of lne was Actor - Sal Collah 137

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