Book Title: JAINA Convention 2015 07 Atlanta GA
Author(s): Federation of JAINA
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 98
________________ जैनागमों में अहिंसा जं इच्छसि अप्पणतो, जंच न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एतियगं जिणसासणे।। जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही तुम दूसरों के लिए भी चाहो। जो तुम अपने लिए नहीं चाहते. यह तुम दूसरों के लिए भी मत चाहो, यह जिनशासन का निर्देश है। लगभग इसी बात को संस्कृत बांड्.मय में कहा आचार्य महाश्रमण श्रूयतां धर्मसर्वस्यं, श्रुत्या याक्वार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।। धर्म की बात को सुनकर और अवधारित कर यह ग्रहण करो कि तुम्हारे लिए जो प्रतिकूल है. वैसा आचरण या वैसा व्यवहार तुम दूसरों के लिए मत करो। जैसे मुझे कोई गाली देता है तब मुझे बुरा लगता है तो मैं भी किसी को गाली न दूं। मुझे कोई मारता-पीटता है, तब कष्ट होता है, तो मैं भी किसी को मार-पीटूं नहीं। मेरा कोई अपमान करता है, तब मुझे बुरा लगता है तो मैं भी किसी का अपमान न करूं। यह आत्मतुला की चेतना है। संबोधि ग्रन्थ में कहा गया - जीवस्य परिणामेन, अशुभेन शुभेन च। संगृहीताः पुद्गला हि. कर्मरूपं भजन्त्यलम।। सूयगडो में कहा गया है जीव के अशुभ अथवा शुभ परिणामों के द्वारा जो सूक्ष्म पुदगल आकृष्ट होते हैं और चेतना के विपकते हैं, वे पुदगल की कर्म संशा को प्राप्त होते हैं। अशुभ परिणाम हैं तो अशुभ कर्मों का बन्ध और शुभ परिणाम है तो पुण्य या शुभ कर्मों का बन्च होता है। अहिंसा शुभ परिणाम है और हिंसा अशुभ परिणाम है। कर्म के बन्धन में और कर्म के विमोक्षण में हिंसा और अहिंसा का बड़ा योगदान होता है। योगशास्त्र में तो यहां तक कहा गया कि धर्म एक ही हैं, अहिंसा। तब प्रश्न हुआ कि सत्य आदि क्या है? समाधान दिया गया - अहिंसापयसः पालिभूतानि अन्यव्रतानि.............। अहिंसा रूपी पानी की सुरक्षा के लिए सत्य आदि प्रत पाल के समान होते हैं। जैन आगमों में अहिंसा के बारे में अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है, विवेचन मिलता है। आयारो का पहला अध्ययन 'शस्त्रपरिशा' मुख्यतया अहिंसा पर आधारित है। वहां छह जीय निकायों के बारे में वर्णन है। पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और उसकाय के जीवों के प्रति अहिंसा का वर्तन करने का निर्देश दिया गया है। एवं खु णाणिणो सारं, जंण हिंसति कंचणं। अहिंसा समयं चेय, एतायंत विजाणिया।। ज्ञानी आदमी के ज्ञान का सार यहीं है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है- इतना ही उसे जानना हैं। अहिंसा और समता एक दूसरे से अभिन्न है। समता का भाव नहीं हैं तो अहिंसा की साधना नहीं हो सकती। राग-द्वेष मुक्ति का भाव नहीं है तो अहिंसा कैसे होगी ? राग-द्वेष में आकर आवमी हिंसा करता है। जब कारण विद्यमान है तो हिंसा कभी भी हो सकती है। पण्हावागरणाइ में भी अहिंसा के बारे में सुन्दर विवेचन किया गया है। वहां अहिंसा को ' भगवती ' विशेषण से अलंकृत कर कहा गया हैं -एसा सा भगवती अहिंसा, जा सा भीयाणं पिय सरणं, पक्खीणं पिव गवणं। तिसियाण पिव सलिलं, खुहियाण पिव असणं ।। समुहमाझे व पोतयहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं। दुहहियाणं व आसहि वलं, अडवीमो व सत्थगमणं ।। यह वह भगवती अहिंसा है। वह प्राणियों के लिए वैसे ही आधारभूत है जैसे डरे हुए मनुष्यों के लिए शरण, पक्षियों के लिए गगन, प्यासों के लिए जल, भूखों के लिए भोजन, समुद्र में सूबते हुए मनुष्यों के लिए नौका, चतुष्पदो के लिए आश्रम, रोगियों के लिए औषध और जंगल को पार करने के लिए सार्थगमन। आवश्यक सूत्र में कहा गया - "मित्ती में सव्य भूएसु सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है। किसी के साथ मेरा वैरभाव नहीं है। यह अहिंसा का कितना उत्कृष्ट सूत्र है। एक, दो, तीन के प्रति जो मैत्री होती है यह कुछ मोहात्मक भी हो सकती है किन्तु सभी प्राणियों के प्रति मैत्री है, किसी के साथ वैरभाव नहीं है, यह अहिंसा का बहुत उत्तम भूमिका का निदर्शन है। उत्तरायणाणि में भी कहा गया - मित्ती भूएसुकप्पए तुम प्राणियों के साथ मैत्री का व्यवहार करो। जैनदर्शन में पदजीवनिकाय के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है। इस विषय में राजस्थानी भाषा के दो दोहे कहे जाते हैं - जीवाजीय जाण्या नहीं, नहीं जाणी छह काय। सूने घर रा पावणा, ज्यूं आया त्यूं जाय।। अहिंसा का एक महत्वपूर्ण सूत्र है-आयतुले पयासु । प्राणियों को अपने समान समझो। जितने भी प्राणी हैं वे तुम्हारे समान हैं। प्रश्न हुआ, सबके अपने-अपने कर्म है। फिर सब एक समान कैसे हुए? उत्तर दिया गया - प्राणियों में अनेक बातों की समानता है, जैसे कोई भी प्राणी सामान्यतया मरना नहीं चाहता, यह जीना चाहता है। कोई भी प्राणी दुख नहीं चाहता, वह सुख चाहता है। यह प्राणियों में समानता है। दसवेआलियं में इसी बात को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है सव्ये जीया वि इच्छति, जीविठं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणयह पोरं, निग्गंथा वज्जयति णं।। साब जीव जीना चाहते हैं. मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए निम्रन्थ घोर प्राणयध का परिवर्जन करती हैं। समणसुत्तं एक ऐसा ग्रन्थ है जो समस्त जैन सम्प्रदायों द्वारा सम्मत है। यहां आत्मतुला के सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए कहा गया है 194 JAINA Convention 2015 Jainism: World of Non-Violence 195

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