Book Title: Ishwarwad Banam Purusharth Vad
Author(s): Krupashankar Vyas
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 5
________________ :५०५ : ईश्वरवाद बनाम पुरुषार्थवाद ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-वान्य अर्थात पूरि (नगर) में निवास करने वाला। मानव शरीर एक नगर के समान है इसमें निवास करने वाला 'जीव' है । अतः पुरुष का मूल अर्थ है 'जीव' किन्तु आज पुरुष शब्द जीव का पर्यायवाची न होकर पुरुषलिंग का द्योतक बन गया है। जबकि यह अर्थ व्याकरणसम्मत नहीं है। व्याकरणसम्मत अर्थ के रूप में जब 'पुरुष' शब्द का प्रयोग हो तथा उसके साथ 'अर्थ' शब्द का संयोग कर दिया जाये तो यह 'पुरुषार्थ' शब्द सम्पूर्ण मानव जाति के उद्देश्य या प्रयोजन की अभिव्यक्ति करता है। इसी कारण से इसी अर्थ में प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में 'पुरुषार्थ चतुष्टय' का उल्लेख मिलता है"धर्मार्थकाममोक्षाय पुरुषार्था उदाहृताः" -अग्निपुराण धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मानव जाति के जीवन का सम्पूर्ण ध्येय अन्तनिहित है। इन चारों पुरुषार्थों में भी अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष ही श्रेयस्कर माना गया है। प्राप्त करने के लिए कोई भी साधक प्रयासशील हो सकता है। भले ही वह साधक गृहस्थ हो अथवा गृहत्यागी हो, नर हो या नारी हो, बाल हो या वृद्ध हो, देश का हो या विदेश का हो । अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि देश, काल, वय, जाति आदि कुछ भी साधक को साध्य की प्राप्ति में बाधक नहीं है। यदि कुछ बाधक है तो साधक की ही मानसिक-दुर्बलता जो कि उसके मन में संसार के प्रति मोह, ममता, तृष्णा आदि विकार को जन्म दे देती है जिससे वह इस संसार के महापंक में आमग्न हो जाता है। इसी कारण से ही वह भवचक्र के गमनागमन क्रिया से दुःखी बना रहता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि साधक अपने आप का हितचिन्तक बने । कथन'६ भी है "पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि।" इसी भाव को उपनिषदों में भी स्पष्ट किया गया है। वहाँ तो साधक को स्पष्ट चेतावनी दी गई है कि संसार में यदि कोई विषय देखने योग्य है तो वह “स्व आत्मा" है और अन्य कुछ नहीं "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः" आत्मा का चिन्तक (स्वचिन्तक) बनते ही साधक सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यकचारित्र एवं सम्यक्-तप का पूर्णतया एवं सर्वतोभावेन विकास करने में संलग्न हो जाता है। इस चतुरंग मार्ग के विकसित होते ही साधक के कर्मबन्धन विच्छिन्न हो जाते हैं जिसके फल १५ विशेष के लिए द्रष्टव्य-चिन्तन की मनोभूमि-उपाध्याय अमरमुनि, पृ० ७६ १६ आचारांग १२३॥३ १७ (अ) "आलंवणं च मे आदा"-नियमसार ६६ (ब) “आदा हु मे सरणं"-मोक्ष पाहुड १०५ १८ (अ) “अट्ठ विहं पि य कम्म अरिभूयं होइ सव्व-जीवाणं । तं कम्ममरिहंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥" -आवश्यकनियुक्ति ६१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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