Book Title: Ishwarwad Banam Purusharth Vad
Author(s): Krupashankar Vyas
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 1
________________ : ५०१ : ईश्वरवाद बनाम पुरुषार्थवाद ।। श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ %3 ईश्वरवाद बनाम पुरुषार्थवाद डा० कृपाशंकर व्यास संस्कृत विभाग, शासकीय महाविद्यालय, शाजापुर (म० प्र०)] सृष्टि में विषय और विषयी प्रायः एक संस्थान के रूप में होने से पृथक नहीं हैं। इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से अथवा मानसिक प्रत्ययों से उत्पन्न सुख-दुख रूप विषयों का अनुभवकर्ता जीव है-इसे दार्शनिकों ने विषयी के द्रष्टा के रूप में नित्य स्वीकारा है जबकि विषयों को परिवर्तनशील, क्षणभंगुर या जड़ पदार्थों से जन्य होने के कारण (अजीव भी कहा जाता है) कुछ दार्शनिकों को छोड़कर शेष सभी ने अनित्य माना है । जीव-अजीव कब और कैसे संयुक्त होकर सृष्टि में कारणरूपता को प्राप्त हुए-यही गहन समस्या दार्शनिकों के समक्ष आदिकाल से बनी हुई है जिसका समाधान सभी दार्शनिकों (भारतीय और पाश्चात्य) ने यथासम्भव ढुंढ़ने का अथक प्रयास किया है। यह भिन्न बात है कि आज तक सर्वसम्मत समाधान नहीं मिल सका है। भारतीय-दर्शन के प्रयास की दिशा को समझने के लिये आवश्यक है कि इसके मुल-सिद्धान्तों को कम से कम स्थल रूप में समझ लें। भारतीय-दर्शन स्थूलतः दो भागों में (कालक्रमानुसार नहीं) विभाजित किया गया है(१) आस्तिक (२) नास्तिक* । आस्तिकदर्शन के अन्तर्गत वे दर्शन आते हैं जो अपने आदिस्रोत के लिये वेदाश्रय लेते हैं। इनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा आते हैं। नास्तिकदर्शन के अन्तर्गत वे दर्शन हैं जो कि अपने सिद्धान्तों के लिये वेद को आदिस्रोत के रूप में स्वीकार नहीं करते, अपितु अपने-अपने सिद्धान्त प्रतिपादकों को ही अपने-अपने धर्म और दर्शन का आदि प्रणेता स्वीकार करते हैं। इसके अन्तर्गत चार्वाक, जैन, बौद्ध विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं। उपरोक्त दर्शन विभागों में कतिपय विभाग जीव से परे एक अन्य सत्ता को भी मान्यता देते हैं, जबकि अन्य नहीं। इनमें ईश्वर की सत्ता को अंगीकार करने वाले दर्शन न्याय, वैशेषिक, योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा एवं जैन हैं (कुछ सीमा तक तथा भिन्न अर्थ में ईश्वरीय सत्ता में विश्वास है)। सांख्य-दर्शन को अनीश्वरवादी दर्शन भी कहा जाता है कारण कि सांख्य में पुरुष ही सब कुछ है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। ईश्वर और ईश्वरवाद (Theism) को समझने के लिये आवश्यक है कि इन शब्दों का * नास्तिक उस अर्थ में जो कुछ लोग कहते आये हैं। नास्तिक की परिभाषा और व्युत्पत्ति के अनुसार जैन नास्तिक नहीं हैं। -सम्पादक १ (अ) जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य सत् है-यथा “सद् दव्वं वा" -भगवती सूत्र ८E (ब) "तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्धम्" -पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक ८ "विद्वानों का यह भी मत है कि जैन-दर्शन आस्तिक-दर्शन है।" विशेष द्रष्टव्य-"जैनधर्म की आस्तिकता" -चिन्तन की मनोभूमि-उपाध्याय अमरमुनि, पृ० ८६ वस्तुतः आस्तिक या नास्तिक किसी दर्शन के लिए कहना दर्शन की उस शाखा का अपमान नहीं है बल्कि आस्तिक-नास्तिक शब्द दर्शन को विभाजित करने वाले शब्द मात्र हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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