Book Title: Ishwarwad Banam Purusharth Vad Author(s): Krupashankar Vyas Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 3
________________ : ५०३ : ईश्वरवाद बनाम पुरुषार्थवाद श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ ।। - सम्बन्ध ही स्थापित करता है। ईश्वर में यदि व्यक्तित्व का अभाव हो तो वह अपने उपासक के प्रति किसी भी प्रकार से अपने कारुणिक भाव को प्रदर्शित नहीं कर सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ईश्वरवाद (चाहे भारतीय हो या पाश्चात्य) व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की स्थापना करके मानव-मानस की धामिक सन्तुष्टि ही करता है। यहां यह कहना असंगत न होगा कि ईश्वरवाद का प्रयोग सभी ईश्वरवादी दार्शनिकों एवं धार्मिक मतावलम्बियों ने किया अवश्य है किन्तु अर्थ में भिन्नता है। इस सन्दर्भ में भारतीय दार्शनिक आचार्य उदयन का कथन विशेष औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है कि "ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह करना ही व्यर्थ है क्योंकि कौन ऐसा मनुष्य है जो किसी न किसी रूप में 'ईश्वर' को न मानता हो-यथा उपनिषद् के अनुयायी ईश्वर को 'शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव' के रूप में, कपिल अनुयायी 'आदि विद्वान् सिद्ध' के रूप में पतंजलि अनुयायी 'क्लेश, कर्म, विपाक, आशय (अदृष्ट) से रहित, निर्माणकाय के द्वारा सम्प्रदाय चलाने वाले तथा वेद को अभिव्यक्त करने वाले' के रूप में, पाशुपत मत वाले 'निर्लेप तथा स्वतन्त्र' के रूप में, शैव 'शिव' के रूप में वैष्णव-'विष्ण' (पुरुषोत्तम) के रूप में, पौराणिक-पितामह' के रूप में, याज्ञिक 'यज्ञ पुरुष' के रूप में, सौगत-'सर्वज्ञ' के रूप में, दिगम्बर 'निरावरण मूर्ति के रूप में, मीमांसक 'उपास्य देव' के रूप में, नैयायिक-'सर्वगुणसम्पन्न पुरुष' के रूप में, चार्वाक-'लोक व्यवहार सिद्ध' के रूप में तथा बढ़ई 'विश्वकर्मा' के रूप में, जिनका पूजन करते हैं, वही तो 'ईश्वर' है।" इस प्रकार स्पष्ट है कि मानव सन्तुष्टि के लिये प्रायः सभी दार्शनिकों ने किसी न किसी रूप में ईश्वर-अस्तित्व के सिद्धान्त को अंगीकार किया है यद्यपि यह अवश्य है कि ईश्वर शब्द के अर्थों में मतैक्य नहीं है। जगत में जीव-अजीव के संयुक्त होने में न्यायवैशेषिकादि" दर्शनों ने ईश्वर, प्रकृति, पुरुष, संयोग, काल, स्वभाव और यदृच्छा आदि को कारण माना है । इन दर्शनों की दृष्टि में जीव को शुभाशुभ कर्मफल की प्राप्ति ईश्वरादि के द्वारा होती है । इस मत के विपरीत जैन दार्शनिकों का मत है कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है और उसी प्रकार वह फल भोगने में भी स्वतन्त्र है। हाँ, यह अवश्य है कि जैन दार्शनिकों ने इसके साथ ही साथ काल, स्वभाव और कर्म को भी सृष्टि में कारण स्वरूप माना है तथा यदृच्छावाद का पुरजोर खण्डन किया है। जैनदार्शनिकों ने असंख्य जीव एवं अजीव पदार्थों की परस्पर प्रतिक्रिया के सिद्धान्त को स्वीकार कर जगत के विकास की प्रक्रिया का विश्लेषण किया है। इनके मत में जगत के सृजन १० (अ) न्याय कुसुमाञ्जलि १-१ (ब) भारतीय दर्शन-उमेश मिश्र, पृ० २२४ ११ (अ) प्रशस्तपादभाष्य (सृष्टि संहार प्रकरण) (ब) सांख्य कारिका २१ (स) न्यायसूत्रभाष्य (द) गीता ५।१४ १२ आसवदि जण कम्मं परिणामेणप्पणो स निण्णेयो। मावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ॥ १३ (अ) भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० ३०२-डा० राधाकृष्णन (ब) पञ्चास्तिकाय समयसार, गाथा १५ (द्रव्य सं० २६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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