Book Title: Ishwarwad Banam Purusharth Vad Author(s): Krupashankar Vyas Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 6
________________ || श्री जैन दिदाकर- स्मृति-ग्रन्थ / चिन्तन के विविध बिन्दु : 506: साधक मानवत्व की कोटि से ईश्वरत्व की कोटि में पहुँच जाता है। वस्तुतः मानव के पुरुषार्थ की इति ही जैनदर्शनानुसार ईश्वरत्व (अर्हतत्व सिद्धत्व) की प्राप्ति है। इस ईश्वरत्व की अवस्था में मानव परमात्मभाव को प्राप्त हो जाता है। उसको प्राप्ति के लिए अप्राप्तव्य कुछ नहीं रहता अपितु मानवात्मा" अपने शाश्वत् स्वरूप में स्थित हो जाती है कारण कि उसका बन्धन जो कि अविद्या तथा कर्म के कारण था वह ज्ञान से सदा-सदा के लिए विच्छिन्न हो जाता है। इसी कारण जैन-दर्शन में आत्मा को अनन्त आनन्द सत माना गया है। यहाँ यह प्रश्न संभाव्य है कि आत्मा जब सुखरूप तथा आनन्दरूप है तब दुख किस कारण से है। यह दुःख यथार्थतः कर्म° बन्धन के कारण है। इसी कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को पुरुषार्थ का (व्यावहारिक अर्थ-शक्ति या प्रयास) आश्रय लेना पड़ता है। यहाँ पुरुषार्थ शारीरिक शक्ति का परिचायक नहीं है अपितु मानसिक शक्ति का द्योतक है / कथन भी है "ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः" इसी ज्ञान रूपी पुरुषार्थ से साधारण से साधारण मानव ईश्वरत्व को प्राप्त हो सकता है। यही है जैनधर्म का मानव-दर्शन / किसी कवि ने उचित ही कहा है "बीज बीज ही नहीं, बीज में तरुवर भी है। मनुज मनुज ही नहीं, मनुज में ईश्वर भी है॥" (-चिन्तन की मनोभूमि, पृ० 50) पताडा० कृपाशंकर व्यास मारवाड़ सेरी पो० शाजापुर (म० प्र०) * (ब) "मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वरत्व है।" द्रष्टव्य-चिन्तन को मनोभूमि, पृ० 47 16 (अ) "खवित्ता पुव्व कम्माइ संजमेण तवेण य / सव्वदुक्ख पहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो // " -उत्तरा० 25145 (ब) चिन्तन की मनोभूमि, पृ० 31 (स) जैन-दर्शन का व्यापक रूप (जैनधर्म परिचय माला), पृ० 20 --महात्मा भगवान दीन 20 "अस्त्यात्माऽनादितोबद्धः कर्मभिः कर्मणात्मकः" -(जैनधर्म परिचय माला भाग १२)-लोक प्रकाश 424 21 "णाणं णरस्स सारो"-दर्शन पाहड ३१-कुन्दकुन्दाचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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