Book Title: Hitopadesh
Author(s): Prabhanandsuri, Parmanandsuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 13
________________ जैनसंघने मळेलो दिव्यप्रकाश : हितोपदेश वास्तवमां ते परनिंदा ज करी रह्या छे. (गाथा-३७८-३७९) जेओ आत्मोत्कर्ष दोषनो त्याग करीने प्रशमामृतथी पोताना आत्माने सींचे छ तेवा आत्माओ ज आ भवमां अने परभवमां परमसुखी थाय छे. (गाथा-३८०) दशमा कृतज्ञगुणने वर्णवतां एक अनुपम वात जणावी छे के - उत्तम कोण अने अधम कोण ? ए बन्नेनी व्याख्या करतां तमे शा माटे मुंझाओ छो ? जेओ कृतज्ञ छे तेओ उत्तम छे अने जेओ कृतघ्न छे तेओ अधम छे. (गाथा-३८३) पृथ्वी कृतज्ञपुरुषोने धारण करवाना कारणे रत्नधरा कहेवाय छे अने कृतघ्नपुरुषोने धारण करवाना कारणे मेदिनी कहेवाय छे. (गाथा-३८४) ___ माटे ज भगवानने प्रार्थना करतां कर्तुं छे के - हे भगवन् ! जो आपनी पासेथी मागेलं मळतुं होय तो एक ज वस्तु मागु छु के - भले हुं कोईनो उपकार करवा के बदलो वाळवा समर्थ न बर्नु, पण कृतघ्न तो क्यारे य पण न ज थाउं ! (गाथा-३८६) ___ “कृतघ्नतादोषने कारणे तो आत्माना पोताना ज गुरुता गुणनो नाश थाय छे. श्रीतीर्थंकर भगवंतो पण कृतज्ञता गुणना प्रभावे तीर्थने नमस्कार करे छे” इत्यादि जणावीने कृतज्ञगुण- सुंदर वर्णन कर्यु छे. (गाथा-३९१) अगियारमा अभिनिवेशत्याग नामना गुणनुं वर्णन करतां जणाव्युं छे के - आत्मामां प्रगट थता गुणसमुदायने रोकवानुं कार्य अभिनिवेश (मिथ्याआग्रह) करे छे. जेना हृदयमां अभिनिवेश- झेर रहेलुं होय तेना उपर गुरुनां वचनोनो मंत्र पण असर करी शकतो नथी. आचरेलु कष्टकारी धर्मानुष्ठान, तीव्रतप, निर्मळकोटिनुं शील अने श्रुतज्ञान पण अभिनिवेशना कारणे नाश पामे छे. चारित्ररूप जहाजनी,सहायथी संसार-सागरना किनारे आवेला आत्माने पण अभिनिवेशरूप कल्लोलनी हारमाळा मधदरियामां फेंकी दे छे. "अभिनिवेश दोषने कारणे ज प्राणी मोक्षमार्ग स्वरूप निग्रंथप्रवचननो त्याग करीने संसार अटवीमां भटकी मरे छे" ईत्यादि वातो समजावीने ऊंडो खेद व्यक्त को छे. श्रीजिनमतने न पामेला जीवो कदाग्रहने आधीन होय तेमां नवाई नथी, पण श्रीजिनमतने पामेला आत्माओ पण कदाग्रहने आधीन होय, तेमां तो मोहनो ज महिमा छे ने ? (गाथा-३९३ थी ४०६) जैनशास्रोनां यथार्थ रहस्योने जाण्या विना ज व्याख्याननी पाट उपर बेसीने उन्मादने वश थयेला व्याख्याताओ जे उन्मार्गनी प्ररूपणा करे छे, ते पण आ अभिनिवेशनो ज विलास छे. एम जणावीने एनाथी बचवानो उत्तम उपदेश आप्यो छे. (गाथा-४०७ थी ४०८) त्यार पछी विरतिनुं वर्णन करतां देशविरति अने सर्वविरति एम विरतिना बे भेद दर्शावीने त्रीजा देशविरतिद्वार- वर्णन करतां बारव्रतोतुं अने बारव्रतोना अतिचारोनुं वर्णन कर्यु छे. (गाथा-४०९ थी ४५०) Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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