Book Title: Hitopadesh
Author(s): Prabhanandsuri, Parmanandsuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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जैनसंघने मळेलो दिव्यप्रकाश : हितोपदेश
हितोपदेशमालाप्रकरणं समाप्तमिति भद्रम् ।। आ प्रमाणे उल्लेख छे. परंतु सटीक संवेगी उपाश्रयनी संपूर्ण प्रत छे तेमां छेल्ले हितोपदेशवृत्तिः संपूर्णा आ प्रमाणे उल्लेख छे तथा मूळगाथा-५२३ मां 'हिओ एसो हिओवएसो' आ रीते 'हितोपदेशः 'मुंज सूचन छे. वळी मूळगाथा-५२५ मां 'नंदउ हिओवएसो इमो भुवणे' अने मूळगाथा-५२६ मा 'कल्लाणकारणं एसो' आ प्रमाणे पुल्लिंग प्रत्ययान्त “हितोपदेशः 'नुं स्पष्टपणे सूचन करेल छे. तेथी मूळग्रंथनुं नामाभिधान “हितोपदेशः" करवामां आवेल छे.
- हितोपदेश ग्रंथनी कुल-५२५ गाथा छे अने तेनो उल्लेख “गाहाणं संखाए पंचसया पंचवीसहिया" ।।५२५।। आ प्रमाणे छे. मूळगाथानी प्रत पाटण आ. हेमचंद्राचार्य ज्ञानभंडारनी छे, तेमां 'जाव सुरसिहरि'... ए गाथा तथा 'निसुणंतपढंतगुणंतयाण'... ए गाथा, बंनेनो नंबर-५२५ छ; ज्यारे संवेगी उपाश्रयनी सटीक संपूर्ण प्रतमां 'जाव सुरसिहरि...' गाथानो ५२५ नंबर छे अने 'निसुणंतपढंत...' ए गाथानो ५२६ नंबर छ; तेथी प्रस्तुत टीका ग्रंथमां ए प्रमाणे ५२६ नंबरनो उल्लेख करेल छे. ___- ‘एवंविहाण'... ७०मी गाथा पछी सटीक प्रतमां 'भाविजइ'... गाथा छे अने तेनो क्रमांक-७२ छे. वछे ७१मी गाथा के तेनी टीका नथी. ज्यारे मूळगाथावाळी प्रतमा एवंविहाण'... ७०मी गाथा पछी 'संते वि चित्तवित्ते'... ७१मी गाथा छे अने त्यार पछी 'भाविजई'... ए गाथा-७२मी छे. तेथी प्रस्तुत प्रकाशनमां भाविज्जइ गाथानो क्रमांक-७२ होवाथी ते मुजब ज राखेल छे. ___- सटीक प्रतमां 'रिद्धीओ विउलाओ' ७४मी गाथा पछी 'दीणाईसु दयाए' ७५मी गाथा छे. परंतु मूळ गाथावाळी प्रतमा 'रिद्धीओ विउलाओ' ७४मी गाथा पछी 'जह तेण सिट्ठि' गाथा छे अने तेनो क्रमांक७५मो छे, ज्यारे सटीक प्रतमां 'जह तेण सिद्धि' गाथानो नंबर-७६ छे. त्यार पछी सटीक प्रतमां अने मूळ प्रतमां बनेमा 'अणुकंपादाणमिणं' गाथा छे अने तेनो नंबर-७७ छे. त्यार पछी सटीक ग्रंथ अने मूळ ग्रंथ बंनेमां गाथा क्रमांक सरखा ज छे. फक्त मूळ गाथानी प्रतमां छेल्ली बे गाथाना नंबर बनेना ५२५ छे अने सटीक प्रतमा ५२५ अने ५२६ छे.
आ ग्रंथना प्रकाशन माटे हस्तप्रत प्राप्त थाय ते माटे तपास चालु हती ते वखते ‘हितोपदेशः' नामनो एक ग्रंथ उपलब्ध थतो हतो. परंतु ते अजैन ग्रंथ हतो. आ ग्रंथना प्रकाशनथी जैन संघने जैनोनो पोतानो 'हितोपदेशः' ग्रंथ पण जाणवा-माणवा मळी रह्यो छे, ए आनंदनो विषय छे.
वि. सं. २०५०मां श्रीपालनगर : वालकेश्वर-मुंबई खाते तपस्विसम्राट् वर्धमानतपोनिधि पू. आ. श्री विजय राजतिलकसूरीश्वरजी महाराजा अने प्रशांतमूर्ति, सुविशालगच्छाधिपति पू. आ. श्री विजय महोदयसूरीश्वरजी महाराजानी तारक निश्रामां चातुर्मासिक ग्रंथवाचनरूपे सौ प्रथम आ ग्रंथ वांच्यो त्यारे श्रोतावर्गनी साथोसाथ वाचन करनार हुं पण अपूर्व अनुभूतिओना सरोवरमां गरकाव थयो हतो. ए चातुर्मासनां हितोपदेश उपरनां व्याख्यानोने पण मुमुक्षुओए कागळ पर अवतार्या हतां, जे निकट भाविमां प्रकाशित थवानी संभावना छे.
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