Book Title: Hindi Marugurjar Sajain Sahitya ka Mahattva aur Mulya Author(s): Shitikanth Mishr Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 7
________________ डॉ. शितिकण्ठ मिश्र विपुल सरस काव्य-साहित्य भी है, जो सहदयों के सहानुभूति की प्रतीक्षा कर रहा है। आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जोर देकर कहा है कि -- इस साहित्य को अनेक कारणों से इतिहास ग्रन्थों में सम्मिलित किया जाना चाहिये। कोरा धर्मोपदेश समझ कर छोड़ नहीं देना चाहिये। धर्म वहाँ केवल कवि को प्रेरणा दे रहा है। जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हो उससे वह साहित्य निश्चित रूप में भिन्न है, जिसमें धर्म भावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो और साथ ही जो हमारी सामान्य मनुष्यता को आन्दोलित, मथित और प्रभावित कर रही हो। उनका विचार है कि धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश को हमेशा काव्यत्व का परिपंथी नहीं समझा जाना चाहिये अन्यथा हमारे साहित्य की विफल सम्पदा चाहे वह स्वयंभ. पुष्पदंत या धनपाल की हो या जायसी, सर, तुलसी की हो, साहित्य क्षेत्र से अलग कर दी जायेगी। इसलिए धार्मिक होने मात्र से कोई रचना साहित्य क्षेत्र से खारिज नहीं की जा सकती। लौकिक कहानियों को आश्रय करके धर्मोपदेश देना इस देश की प्रथा रही है। मध्ययुग के साहित्य की प्रधान प्रेरणा धर्म साधना ही रही है और धर्म बुद्धि के कारण ही आज तक प्राचीन साहित्य सुरक्षित रह सका है। जैन साहित्य के सम्बन्ध में आ. द्विवेदी का यह अभिमत शत-प्रतिशत सही है। जैन-काव्य का लक्ष्य जीवन और जगत् के प्रति जैनाचार्यों का एक विशेष दृष्टिकोण है। संसार की नश्वरता, समत्वदृष्टि, अहिंसा, जीवदया और नैतिक संयम-नियम पर उनका विशेष ध्यान रहता है। इसलिए उन्होंने साहित्य को केवल कला या साहित्य के लिए नहीं माना। मानव के चार पुरुषार्थों में परमपुरुषार्थ-मोक्ष को वे साहित्य का साध्य मानते हैं। इसीलिए उन्होंने साहित्य में श्रृंगार का रसराजत्व नहीं स्वीकार किया। रतिया श्रृंगार मनुष्य को उत्तेजित करता है, भोग-विलास की ज्वाला उद्दीप्त करता है। इसकी ओर तो मनुष्य स्वतः आकर्षित होता है। इसके शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह मनुष्य को निरन्तर व्यग्र रखता है, जबकि मनुष्य स्वभावतः शान्तिप्रिय है, इसलिए जीवन में शान्ति या शम ही काम्य है। मनुष्य को वास्तविक शान्ति, सुख-दुःखादि द्रन्दों से ऊपर उठकर प्राणिमात्र के प्रति समत्व धारण करने पर ही मिलती है। अतः मरु-गुर्जर जैन साहित्य का प्रधानस्वर शान्ति या शम का है, जिसकी आज संसार को सर्वाधिक आवश्यकता है। इसीलिए यह साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना शताब्दियों पूर्व था और उतना ही शताब्दी बाद तक रहेगा। यह मरु-गुर्जर जैन साहित्य का सार्वभौम महत्त्वपूर्ण पक्ष है और साहित्य जगत् को यह इसकी अनूठी भेंट है। इनका कथन है कि श्रृंगार और शम के स्वस्थ समन्वय से ही मानव को जीवन का चरमलक्ष्य प्राप्त हो सकता है। इसलिए जैन लेखक जीवन की मादकता, इन्द्रिय-लिप्सा और कामुक उद्वेगों का परिहार अन्ततः शम में करते हैं। इन काव्यों में नायक अपने यौवन में युद्ध, भोग आदि में अवश्य लिप्त होते हैं और कवि वीर, श्रृंगार आदि के विमर्श का अवसर निकाल लेते हैं, किन्तु अन्त में घटना क्रम अपने चरम पर पहुँच कर शान्तरस में पर्यवसित हो जाता है। यह भाव बड़े-बड़े लोगों को कुसमय में सहारा देता है। परम-चरिउ में लक्ष्मण के शक्ति लगने के अक्सर पर स्वयम् पद्म श्रीराम जब करुणासमुद्र में ऊभचूभ कर रहे होते हैं, तभी उन्हें जीवन की नश्वरता और शरीर की क्षणभंगुरता का बोध होता है और वे तत्क्षण परमशान्ति प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार जैन मुनि स्थूलिभद्र घोर श्रृंगारी नायक थे किन्तु अन्त में कोश-वेश्या के प्रसंगोंपरान्त वे भी परमसंयमी, निष्काम तथा अनासक्त हो जाते हैं। इस प्रकार साहित्य द्वरा व्यष्टि एवं समष्टि के मुक्ति की साधना की गई है। इसलिए साम्प्रदायिक-साहित्य समझ कर इसे साहित्य की कोटि से खारिज करना अपने पैरों में ही कुल्हाड़ी मारना है। भाव की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश अथवा मरु-गुर्जर में प्राप्त समस्त जैन साहित्य निश्चय ही एक श्रेणी का है। उसमें सर्वत्र एक विशिष्ट धार्मिक वातावरण मिलता है, किन्तु जैन कवियों ने सबसे महत्त्वपूर्ण यह कार्य किया है कि उन्होंने धर्म का साहित्य के साथ सफल समन्वय किया। जिस समय जैनकवि काव्यरस की 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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