Book Title: Hindi Marugurjar Sajain Sahitya ka Mahattva aur Mulya
Author(s): Shitikanth Mishr
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ डॉ. शितिकण्ठ मिश्र से उनका पुनर्मिलन प्रायः समस्त सूफी और अन्य साहित्य में मिलता है। इसी प्रकार विमाता का रोष, देवी-देवताओं की कृपा, शाप आदि कथानक सदियों का पूर्वस्प भी हमें मरु-गुर्जर जैन साहित्य में प्रचुर स्प से प्राप्त होता है। कथाशिल्प इसी प्रकार हमें मरु-गुर्जर जैन साहित्य से कथाशिल्प, काव्यस्प और छन्द आदि का भी अवदान प्रभूत मात्रा में प्राप्त हुआ है। अधिकतर जैन काव्य संधियों में विभक्त है। प्रत्येक संधि अनेक कड़क्कों से मिलकर बनती है। कड़वक की समाप्ति धत्ता से होती है। इस प्रकार की शैली सूफी प्रेमाख्यानों में खूब प्रचलित हुई। आ. शुक्ल ने लिखा है कि चरितकाव्य के लिए जैन काव्य में अधिकतर चौपाई और दोहों की पद्धति ग्रहण की गई है। पुष्पदन्त (वि.सं.1029).के आदि पुराण और उत्तर-पुराण से प्रेरणा लेकर यह परम्परा सूफियों के प्रेमाख्यान और तुलसी के मानस तथा छत्रप्रकाश, ब्रजक्लिास आदि परवर्ती आख्यान ग्रन्थों में चलती रही। इसी प्रकार काव्य शिल्प के क्षेत्र में भी हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती पर जैन मरु-गुर्जर साहित्य का बड़ा ऋण है। देखते हैं कि रस, भाव, भाषा के अलावा साहित्य के अन्य अंगों जैसे-- छन्द, काव्यरूप आदि पर भी मरु-गुर्जर जैन साहित्य का व्यापक प्रभाव पड़ा है और इन भाषाओं का साहित्य इस ऋण को स्वीकार कर ही अपना अस्तित्व प्रमाणित कर सकता है। छन्द-योजना छन्दों के क्षेत्र में अपभ्रंश और मरु-गुर्जर जैन साहित्य की मौलिक देन है। मात्रिक छन्दों में तुक अथवा अन्त्यानुप्रास के द्वरा लय और संगीत का संचार पहली बार यहीं किया गया। अन्त्यानुप्रास का प्रयोग न तो संस्कृत काव्य में मिलता है और न प्राकृत में। अतः यह मरु-गुर्जर जैन साहित्य की परवर्ती भाषा साहित्य को महती देन है। जिस प्रकार श्लोक का सम्बन्ध संस्कृत से, गाथा या गाहा का प्राकृत से, उसी प्रकार दूहा या दोहा का सम्बन्ध अपभ्रंश से जाना जाता है। कहा जाता है कि दोहा, छन्द और अपभ्रंश भाषा आभीरों के साथ यहाँ आयी। अपभ्रंश से होकर दोहा, चौपाई, सोरठा, छप्पय आदि मान्त्रिक छन्द मरु-गुर्जर में आये। अतः मात्रिक छन्दों का हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं में अन्त्यानुप्रास के साथ प्रचुर प्रयोग मरु-गुर्जर का ही प्रभाव है। काव्यरूप काव्यस्पों की दृष्टि से जैन मरु-गुर्जर साहित्य बड़ा सम्पन्न एवं विविधतापूर्ण है। जैन कवियों ने लोक गीतों से देशी-धुनों और तों को लेकर ढालें बनाई और उनके प्रयोग द्वरा उन्होंने काव्य को संगीत से समन्वित किया। मरु-गुर्जर जैन साहित्य में काव्य-रूपों की संख्या सैकड़ों हैं। इन्हें कई प्रकार से विभाजित किया जाता है। जैसे-- छन्दों के आधार पर रास, फागु, चउपड़, वेलि, चर्चरी, छप्पय, दोहा आदिः रागों की दृष्टि से बारहमासा, झूलणा, लावणी, बधावा, प्रभाती, गीत, पद आदिः नृत्य की दृष्टि से गरबा, डांडिया, धवल, मंगल आदि उल्लेखनीय है। इसी प्रकार कथा प्रबन्ध के आधार पर प्रबन्ध, खण्ड, पवाडो, चरित, आख्यान, कथा, संवाद, जन्मभिषेक आदि तथा संख्या के आधार पर अष्टक, बीसी, चौबीसी, बहोत्तरी, छत्तीसी, बावनी, सत्तरी, शतक आदि अनेक भेद मिलते हैं। उपासना के आधार पर भी नाना प्रकार के काव्यरूप मिलते हैं, जैसे -- विनती, नमस्कार, स्तुति, स्तवन, स्तोत्र आदि।इसी प्रकार ऐतिहासिकता के आधार पर पट्टावली, गुर्वावली, तलहरा आदि अनेक भेद उपलब्ध होते हैं। काव्यरूपों की ऐसी समृद्ध विविधता शायद ही किसी भाषा-साहित्य में उपलब्ध हो। यह सम्पूर्ण सम्पदा हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषा साहित्य को मरु-गुर्जर जैन साहित्य से अनायास प्राप्त हो गई है, जिसके लिए इनका साहित्य मरु-गुर्जर जैन साहित्य का सदैव आभारी रहेगा। 80 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12