Book Title: Hetvabhasa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ २०० ने प्रशस्तपादादिकथित चार प्रकारों का तो वर्णन किया ही है पर उन्होंने प्रशस्तपाद तथा न्यायप्रवेश की तरह श्राश्रयासिद्ध का एक उदाहरण न देकर उसके दो उदाहरण दिये हैं और इस तरह असिद्ध के चौथे प्रकार श्राश्रयासिद्ध के भी प्रभेद कर दिये हैं । धर्मकीर्ति का वर्णन वस्तुतः प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेशगत प्रस्तुत वर्णन का थोड़ा सा संशोधन मात्र है (न्यायवि० ३ ५८-६७) । । I न्यायसार ( पृ०८) में असिद्ध के चौदह प्रकार सोदाहरण बतलाए गए हैं। न्यायमञ्जरी ( पृ० ६०६ ) में भी उसी ढंग पर अनेक मेदों की सृष्टि का वर्णन है । माणिक्यनन्दी शब्द-रचना बदलते हैं ( परी० ६. २२-२८ ) पर वस्तुतः वे सिद्ध के वर्णन में धर्मकीर्त्ति के ही अनुगामी हैं प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख की टीका मार्तण्ड में ( पृ० १६१ A ) मूल सूत्र में न पाए जानेवाले असिद्ध के अनेक भेदों के नाम तथा उदाहरण दिये हैं जो न्यायसारगत ही हैं । आ० हेमचन्द्र के प्रसिद्धविषयक सूत्रों की सृष्टि न्यायबिन्दु और परीक्षामुख का अनुसरण करनेवाली है। उनकी उदाहरणमाला में भी शब्दशः न्यायसार का अनुसरण है । धर्मकीर्त्ति और माणिक्यनन्दी का अक्षरशः अनुसरण न करने के कारण वादिदेव के प्रसिद्धविषयक सामान्य लक्षण (प्रमाणन० ६. ४६ ) में आ० हेमचन्द्र के सामान्य लक्षण की अपेक्षा विशेष परिष्कृतता जान पड़ती है । वादिदेव के प्रस्तुत सूत्रों की व्याख्या रत्नाकरावतारिका में जो सिद्ध के भेदों की उदाहरणमाला है वह न्यायसार और न्यायमञ्जरी के उदाहरणों का अक्षरशः सङ्कलन मात्र है । इतना अन्तर अवश्य है कि कुछ उदाहरणों में वस्तुविन्यास वादी देवसूरि का अपना है । विरुद्ध हेत्वाभास जैसा प्रशस्तपाद में विरुद्ध के सामान्य स्वरूप का वर्णन है विशेष भेदों का नहीं, वैसे ही न्यायसूत्र और उसके भाष्य में भी विरुद्ध का सामान्य रूप से वर्णन है, विशेष रूप से नहीं । इतना साम्य होते हुए भी सभाष्यन्यायसूत्र और प्रशस्तपाद में उदाहरण एवं प्रतिपादन का भेद' स्पष्ट है । 3 १ 'सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः । - न्यायसू० १.२.६ । 'यथा सोऽयं विकारो व्यक्तेरपैति नित्यत्वप्रतिषेधात् श्रपेतोऽप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्, न नित्यो विकार उपपद्यते इत्येवं हेतुः - 'व्यक्तेरपेतोपि विकारोस्ति' इत्यनेन स्वसिद्धान्तेन विरुध्यते । यदस्ति न तदात्मलाभात् प्रच्यवते, अस्तित्वं चात्मलाभात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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