Book Title: Hetvabhasa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 9
________________ ૨૦૫ आचार्य दिङ्नाग की परम्परा को प्रतिष्ठित बनाए रखने का और भी प्रयत्न किया । प्रशस्तपाद ने विरुद्धाव्यभिचारी के खण्डन में जो दलील दी थी उसको स्वीकार करके भी प्रशस्तपाद के खण्डन के विरुद्ध उन्होंने विरुद्धाव्यभिचारी का समर्थन किया और वह भी इस ढंग से कि दिङ्नाग की प्रतिष्ठा भी बनी रहे और प्रशस्तपाद का जवाब भी हो। ऐसा करते समय धर्मकीर्त्ति ने विरुद्धाव्यभिचारी का जो उदाहरण दिया है वह न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद के उदाहरण से जुदा है फिर भी वह उदाहरण वैशेषिक प्रक्रिया के अनुसार होने से प्रशस्तपाद को ग्राह्य नहीं हो सकता । इस तरह बौद्ध और वैदिक तार्किकों की इस विषय में यहाँ तक चर्चा आई जिसका अन्त न्यायमञ्जरी में हुआ जान पड़ता है । जयन्त फिर अपने पूर्वाचार्यों का पक्ष लेकर न्यायप्रवेश और धर्मकीर्त्ति के न्यायबिन्दु का सामना करते हैं। वे असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी को नैकान्तिक न मानने का प्रशस्तपादगत मत का बड़े विस्तार से समर्थन करते हैं पर साथ ही वे संशयजनकत्व को अनैकान्तिकता का नियामक रूप मानने से भी इन्कार करते हैं । भासर्वज्ञ ने बौद्ध, वैदिक तार्किकों के प्रस्तुत विवाद का स्पर्श न कर अनैकान्तिक हेत्वाभास के आठ उदाहरण दिये हैं ( न्यायसार पृ० १० ), और कहीं संशयजनकता का उल्लेख नहीं किया है । जान पड़ता है वह गौतमीय परम्परा का अनुगामी है । १ 'विरुद्धाञ्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः । स इह कस्मान्नोक्तः । ...... श्रत्रोदाहरणं यत्सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिर्युगपदभिसम्बध्यते तत्सर्वगतं यथाऽकाशम्, अभिसम्बध्यते सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिर्युगपत् सामान्यमिति । ...... द्वितीयोऽपि प्रयोगो यदुपलब्धिलक्षणप्रासं सन्नोपलभ्यते न तत् तत्रास्ति । तद्यथा rafaविद्यमान घटः । नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणप्राप्तं सामान्यं व्यक्त्यन्तरालेष्विति । श्रयमनुपलम्भप्रयोगः स्वभावश्च परस्परविरुद्धार्थसाधनादेकत्र संशयं जनयतः । - न्यायचि० ३. ११२-१२१ । २ साधारणविरुद्वाव्यभिचारिणौ तु न संस्त एव हेत्वाभासाविति न व्याख्यायेते ।.......................अपि च संशयजननमनैकान्तिकलक्षणमुच्यते चेत् काममसाधारणस्य विरुद्धाव्यभिचारिणो वा यथा तथा संशयहेतुतामधिरोप्य कथ्यतामनैकान्तिकता न तु संशयजनकत्वं तल्लक्षणम्.... अपि तु पक्षद्वयवृत्तित्वमनैकान्तिक.....' - भ्यायम० पृ० ५६८-५६६ । लक्षणम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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