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हेत्वाभास हेत्वाभास सामान्य के विभाग में तार्किकों की विप्रतिपत्ति है। अझपाद' पाँच हेत्वाभासों को मानते व वर्णन करते हैं। कणाद के सूत्र में स्पष्टतया तीन हेत्वाभासों का निर्देश है, तथापि प्रशस्तपाद उस सूत्र का श्राशय बतलाते हुए चार हेत्वाभासों का वर्णन करते हैं। प्रसिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक यह तीन तो अक्षपादकथित पाँच हेत्वाभासों में भी आते ही हैं। प्रशस्तपाद ने अनध्यवसित नामक चौथा हेत्वाभास बतलाया है जो न्यायसूत्र में नहीं है । अक्षपाद और कणाद उभय के अनुगामी भासर्वज्ञ ने छः हेत्वाभास वर्मित किये हैं जो न्याय और वैशेषिक दोनों प्राचीन परम्पराओं का कुल जोड़
मात्र है।
दिङ्नाग कत्तक माने जानेवाले न्यायप्रवेश में५ श्रसिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक इन तीनों का ही संग्रह है। उत्तरवर्ती धर्मकीर्ति आदि सभी बौद्ध तार्किकों ने भी न्यायप्रवेश की ही मान्यता को दोहराया और स्पष्ट किया है। पराने सांख्याचार्य माठर ने भी उक्त तीन ही हेत्वाभासों का सूचन व संग्रह किया है। जान पड़ता है मूल में सांख्य और कणाद की हेत्वाभाससंख्या विषयक परम्परा एक ही रही है।
जैन परम्परा वस्तुतः कणाद, सांख्य और बौद्ध परम्परा के अनुसार तीन ही हेत्वाभासों को मानती है। सिद्धसेन और वादिदेव ने (प्रमाणन० ६.४७)
१ न्यायसू० १. २.४। २ 'अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् संदिग्धश्चानपदेशः।-वै० सू० ३.१. १५ ।
३ 'एतेनासिद्धविरुद्धसन्दिग्घाध्यवसितवचनानाम् अनपदेशत्वमुक्कं भवति । -प्रश० पृ० २३८।
४ 'असिद्धविरुद्धानकान्तिकानध्यवसितकालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः।' न्यायसार पृ०७॥
५ 'असिद्धानकान्तिकविरुद्धा हेत्वाभासाः। न्यायप्र० पृ०३। ६ 'अन्ये हेत्वाभासाः चतुर्दश असिद्धानकान्तिकविरुद्धादयः ।'-माठर ५॥
७ 'असिद्धस्त्वप्रतीतो यो योऽन्यथैवोपपद्यते । विरुद्धो योऽन्यथाप्यत्र युक्तोउनैकान्तिकः स तु ॥'न्याया० का० २३ !
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श्रसिद्ध श्रादि तीनों का ही वर्णन किया है। श्रा० हेमचन्द्र भी उसी मार्ग के अनुगामी हैं । श्रा० हेमचन्द्र ने न्यायसूत्रोक्त कालातीत श्रादि दो हेत्वाभासों का निरास किया है पर प्रशस्तपाद और भासर्वज्ञकथित अनध्यवसित हेत्वाभास का निरास नहीं किया है। जैन परम्परा में भी इस जगह एक मतभेद है---वह यह कि अकलङ्क और उनके अनुगामी माणिक्यनन्दी श्रादि दिगम्बर तार्किंकों ने चार हेत्वाभास बतलाए हैं। जिनमें तीन तो प्रसिद्ध आदि साधारण ही हैं पर चौथा अकिञ्चित्कर नामक हेत्वाभास बिलकुल नया है जिसका उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं देखा जाता। परन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि जयन्त भट्ट ने अपनी म्यायमअरी २ में अन्यथासिद्धापरपर्याय अप्रयोजक नामक एक नये हेत्वाभास को मानने का पूर्वपक्ष किया है जो वस्तुतः जयन्त के पहिले कभी से चला आता हुमा जान पड़ता है। अप्रयोजक और अकिञ्चित्कर इन दो शब्दों में स्पष्ट मेद होने पर भी आपाततः उनके अर्थ में एकता का भास होता है। परन्तु जयन्त ने अप्रयोजक का जो अर्थ बतलाया है और अकिञ्चित्कर का जो अर्थ माणिक्यमन्दी के अनुयायी प्रभाचन्द्र ने किया है उनमें बिलकुल अन्तर है, इससे यह कहना कठिन है कि अप्रयोजक और अकिश्चित्कर का विचार मूल में एक है; फिर भी यह प्रश्न हो ही जाता है कि पूर्ववर्ती बौद्ध या जैन न्यायग्रन्थों में अकिञ्चित्कर का नाम निर्देश नहीं तब अकलक ने उसे स्थान कैसे दिया, अतएव यह सम्भव है कि अप्रयोजक या अन्यथासिद्ध माननेवाले किसी पूर्ववर्ती तार्किक अन्य के आधार पर ही अकलङ्क ने अकिञ्चित्कर हेत्वाभास की अपने ढंग से नई सष्टि की हो। इस अकिश्चित्कर हेत्वाभास का खण्डन केवल वादिदेव के सूत्र की व्याख्या. { स्याद्वादर० पृ० १२३० ) में देखा जाता है ।
१'असिद्धश्चानुषत्वादिः शब्दानित्यत्वसाधने । अन्यथासम्भषाभावभेदात् स बहुधा स्मृतः ॥ विरु द्धासिद्धसंदिग्धैरकिञ्चित्करविस्तरैः। -न्यायवि० २. १६५-६ । परी० ६.२१ ।
२ 'अन्ये तु अन्यथासिद्धत्वं नाम तद्भदमुदाहरन्ति यस्य हेतोमिणि वृत्तिर्भवन्त्यपि साध्यधर्मप्रयुक्ता भवति न, सोऽन्यथासिद्धो यथा नित्या मनःपरमाणवो मूर्त्तत्वाद् घटवदिति .........स चात्र प्रयोज्यप्रयोजकमावो नास्तीत्यत एवायमन्यथासिद्धोऽप्रयोजक इति कथ्यते । कथं पुनरस्याप्रयोजकत्वमवगतम् - न्यायम० पृ. ६०७॥
३ 'सिद्ध निर्णीते प्रमाणान्तरात्साध्ये प्रत्यक्षादिवाधिते च हेतुर्न किञ्चित्करोति इति अकिञ्चित्करोऽनर्थकः।-प्रमेयक० पृ० १६३ AL
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ऊपर जो हेत्वाभाससंख्या विषयक नाना परम्पराएँ दिखाई गई हैं उन सब का मतभेद मुख्यतया संख्याविषयक है, तत्त्वविषयक नहीं। ऐसा नहीं है कि एक परम्परा जिसे अमुक हेत्वाभास रूप दोष कहती है अगर वह सचमुच दोष हो तो उसे दूसरी परम्परा स्वीकार न करती हो। ऐसे स्थल में दूसरी परम्परा या तो उस दोष को अपने अभिप्रेत किसी हेत्वाभास में अन्तभावित कर देती है या पक्षाभास श्रादि अन्य किसी दोष में या अपने अभिप्रेत हेत्वाभास के किसी न किसी प्रकार में।
श्रा० हेमचन्द्र ने हेत्वाभास (प्र० मी० २. १. १६) शब्द के प्रयोग का अनौचित्य बतलाते हुए भी साधनाभास अर्थ में उस शब्द के प्रयोग का समर्थन करने में एक तीर से दो पक्षी का वेध किया है.-पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसरण का विवेक भी बतलाया और उनकी गलती भी दर्शाई। इसी तरह का विवेक माणिक्यनन्दी ने भी दर्शाया है। उन्होंने अपने पूज्य अकलङ्ककथित अकिञ्चित्कर हेत्वाभास का वर्णन तो किया; पर उन्हें जब उस हेत्वाभास के
अलग स्वीकार का औचित्य न दिखाई दिया तब उन्होंने एक सूत्र में इस हा से उसका समर्थन किया कि समर्थन भी हो और उसके अलग स्वीकार का अनौचित्य भी व्यक्त हो-'लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात्'-(परी० ६. ३६)।
प्रसिद्ध हेत्वाभास
न्यायसूत्र (१.२.८) में प्रसिद्ध का नाम साध्यसम है। केवल नाम के ही विषय में न्यायसूत्र का अन्य ग्रन्थों से वैलक्षण्य नहीं है किन्तु अन्य विषय में भी। वह अन्य विषय यह है कि जब अन्य सभी ग्रन्थ असिद्ध के कम या अधिक प्रकारों का लक्षण उदाहरण सहित वर्णन करते हैं तब न्यायसूत्र और उसका भाध्य ऐसा कुछ भी न करके केवल प्रसिद्ध का सामान्य स्वरूप बतलाते हैं ।
प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश में प्रसिद्ध के चार प्रकारों का स्पष्ट और समानप्राय' वर्णन है। माठर (का० ५) भी उसके चार भेदों का निर्देश करते हैं जो सम्भवतः उनकी दृष्टि में वे ही रहे होंगे। न्यायबिन्दु में धर्मकीर्ति
१ 'उभयासिद्धोऽन्यतरासिद्धः तद्भावासिद्धोऽनुमेयासिद्धश्चेति ।-प्रशस्त. पृ० २३८ । 'उभयासिद्धोऽन्यतरा सिद्धः संदिग्धासिद्धः श्राश्रयासिद्धश्चेति ।' -न्यायप्र० पृ० ३।
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ने प्रशस्तपादादिकथित चार प्रकारों का तो वर्णन किया ही है पर उन्होंने प्रशस्तपाद तथा न्यायप्रवेश की तरह श्राश्रयासिद्ध का एक उदाहरण न देकर उसके दो उदाहरण दिये हैं और इस तरह असिद्ध के चौथे प्रकार श्राश्रयासिद्ध के भी प्रभेद कर दिये हैं । धर्मकीर्ति का वर्णन वस्तुतः प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेशगत प्रस्तुत वर्णन का थोड़ा सा संशोधन मात्र है (न्यायवि० ३ ५८-६७) ।
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न्यायसार ( पृ०८) में असिद्ध के चौदह प्रकार सोदाहरण बतलाए गए हैं। न्यायमञ्जरी ( पृ० ६०६ ) में भी उसी ढंग पर अनेक मेदों की सृष्टि का वर्णन है । माणिक्यनन्दी शब्द-रचना बदलते हैं ( परी० ६. २२-२८ ) पर वस्तुतः वे सिद्ध के वर्णन में धर्मकीर्त्ति के ही अनुगामी हैं प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख की टीका मार्तण्ड में ( पृ० १६१ A ) मूल सूत्र में न पाए जानेवाले असिद्ध के अनेक भेदों के नाम तथा उदाहरण दिये हैं जो न्यायसारगत ही हैं । आ० हेमचन्द्र के प्रसिद्धविषयक सूत्रों की सृष्टि न्यायबिन्दु और परीक्षामुख का अनुसरण करनेवाली है। उनकी उदाहरणमाला में भी शब्दशः न्यायसार का अनुसरण है । धर्मकीर्त्ति और माणिक्यनन्दी का अक्षरशः अनुसरण न करने के कारण वादिदेव के प्रसिद्धविषयक सामान्य लक्षण (प्रमाणन० ६. ४६ ) में आ० हेमचन्द्र के सामान्य लक्षण की अपेक्षा विशेष परिष्कृतता जान पड़ती है । वादिदेव के प्रस्तुत सूत्रों की व्याख्या रत्नाकरावतारिका में जो सिद्ध के भेदों की उदाहरणमाला है वह न्यायसार और न्यायमञ्जरी के उदाहरणों का अक्षरशः सङ्कलन मात्र है । इतना अन्तर अवश्य है कि कुछ उदाहरणों में वस्तुविन्यास वादी देवसूरि का अपना है ।
विरुद्ध हेत्वाभास
जैसा प्रशस्तपाद में विरुद्ध के सामान्य स्वरूप का वर्णन है विशेष भेदों का नहीं, वैसे ही न्यायसूत्र और उसके भाष्य में भी विरुद्ध का सामान्य रूप से वर्णन है, विशेष रूप से नहीं । इतना साम्य होते हुए भी सभाष्यन्यायसूत्र और प्रशस्तपाद में उदाहरण एवं प्रतिपादन का भेद' स्पष्ट है ।
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१ 'सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः । - न्यायसू० १.२.६ । 'यथा सोऽयं विकारो व्यक्तेरपैति नित्यत्वप्रतिषेधात् श्रपेतोऽप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्, न नित्यो विकार उपपद्यते इत्येवं हेतुः - 'व्यक्तेरपेतोपि विकारोस्ति' इत्यनेन स्वसिद्धान्तेन विरुध्यते । यदस्ति न तदात्मलाभात् प्रच्यवते, अस्तित्वं चात्मलाभात्
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जान पड़ता है न्यायसूत्र की और प्रशस्तपाद की विरुद्ध विषयक विचारपरम्परा एक नहीं है।
न्यायप्रवेश (पृ०५) में विरुद्ध के चार भेद सोदाहरण बतलाए हैं। सम्भवतः माठर (का० ५) को भी वे ही अभिप्रेत हैं । न्यायबिन्दु (३.८३-८८) में विरुद्ध के प्रकार दो ही उदाहरणों में समाप्त किये गए हैं और तीसरे 'इष्टविधातकृत्' नामक अधिक भेद होने की आशङ्का (३.८६-६४ ) करके उसका समावेश अभिप्रेत दो भेदों में ही कर दिया गया है। इष्टविघातकृत् नाम न्यायप्रवेश में नहीं है पर उस नाम से जो उदाहरण न्यायबिन्दु ( ३.६०) में दिया गया है वह न्यायप्रवेश ( पृ०५) में वर्तमान है । जान पड़ता है न्यायप्रवेश में जो 'परार्थाः चक्षुरादयः' यह धर्म विशेषविरुद्ध का उदाहरण है उसी को कोई इष्टविघातकृत् नाम से व्यवहत करते होंगे जिसका निर्देश करके धर्मकीर्ति ने अन्तर्भाव किया है। जयन्त ने (न्यायम० पृ० ६००-६०१) गौतमसूत्र की ही व्याख्या करते हुए धर्मविशेषविरुद्ध और धम्मिविशेषविरुद्ध इन दो तीर्थान्तरीय विरुद्ध भेदों का स्पष्ट खण्डन किया है जो न्यायप्रवेशवाली परम्परा का ही खण्डन जान पड़ता है। न्यायसार (पृ०६) में विरुद्ध के मेदों का वर्णन सबसे अधिक और जटिल भी है। उसमें सपक्ष के अस्तित्ववाले चार, नास्तित्ववाले चार ऐसे विरुद्ध के पाठ भेद जिन उदाहरणों के साथ हैं, उन उदाहरणों के साथ वही श्राठ भेद प्रमाणनयतत्वालोक की व्याख्या में भी हैं (प्रमाणन० ६५२-५३) । यद्यपि परीक्षामुख की व्याख्या मार्तण्ड में (पृ० १६२ A ) न्यायसारवाले वे ही आठ भेद हैं तथापि किसी-किसी उदाहरण में थोड़ा सा परिवर्तन हो गया है। श्रा० हेमचन्द्र ने तो प्रमाणनयतत्त्वालोक की व्याख्या की तरह अपनी वृत्ति में शब्दश: न्यायसार के पाठ भेद सोदाहरण बतलाकर उनमें से चार विरुद्धों को प्रसिद्ध एवं विरुद्ध दोनों नाम से व्यवहृत करने की न्यायमञ्जरी और न्यायसार की दलीलों को अपना लिया है।
प्रब्युतिरिति विरुद्धावेतौ धौं न सह सम्भवत इति । सोऽयं हेतुर्य सिद्धान्तमाश्रित्य प्रवर्तते तमेव व्याहन्ति इति ।'-न्ययभा० १. २. ६ । 'यो ह्यनुमेयेऽविद्यमानोऽपि तत्समानजातीये सर्वस्मिन्नास्ति तद्विपरीते चास्ति स विपरीतसाधनाद्विरुद्धः यथा यस्माद्विषाणी तस्मादश्व इति ।-प्रशस्त० पृ० २३८ ।
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कान्तिक हेत्वाभास
नैकान्तिक हेत्वाभास के नाम के विषय में मुख्य दो परम्पराएँ प्राचीन हैं। पहली गौतम की और दूसरी करणाद की। गौतम अपने न्यायसूत्र में जिसे सम्यभिचार ( १. २. ५. ) कहते हैं उसी को कणाद अपने सूत्रों (३.१.१५ ) में सन्दिग्ध कहते हैं । इस नामभेद की परम्परा भी कुछ श्रर्थ रखती है और वह अर्थ अगले सत्र व्याख्याग्रन्थों से स्पष्ट हो जाता है । वह अर्थ यह है कि एक परम्परा श्रनैकान्तिकता को अर्थात् साध्य और उसके अभाव के साथ हेतु के साहचर्य को, सम्यभिचार हेत्वाभास का नियामक रूप मानती है संशयजनकत्व को नहीं जब दूसरी परम्परा संशयजनकत्व को तो श्रनैकान्तिक हेत्वाभासता का नियामक रूप मानती है साध्य तदभावसाहचर्य को नहीं। पहली परम्परा के अनुसार जो हेतु साध्य - तदभावसहचरित है चाहे वह संशयजनक हो या नहीं-वही सव्यभिचार या श्रनैकान्तिक कहलाता है । दूसरी परम्परा के अनुसार जो हेतु संशयजनक है - चाहे वह साध्य - तदभावसहचरित हो या नहीं-वही श्रनैकान्तिक या सव्यभिचार कहलाता है । अनैकान्तिकता के इस नियामकभेदवाली दो उक्त परम्पराओं के अनुसार उदाहरणों में भी अन्तर पड़ जाता है । श्रतएव गौतम की परम्परा में असाधारण या विरुद्धाव्यभिचारी का श्रनैकान्तिक हेत्वाभास में स्थान सम्भव ही नहीं क्योंकि वे दोनों साध्याभावसहचरित नहीं । उक्त सार्थकनामभेद वाली दोनों परम्पराओं के परस्पर भिन्न ऐसे दो दृष्टिकोण आगे भी चालू रहे पर उत्तरवर्ती सभी तर्कशास्त्रों में- चाहे वे वैदिक हों, बौद्ध हों, या जैन-नाम तो केवल गौतमीय परम्परा का श्रनैकान्तिक ही जारी रहा । कणादीय परम्परा का सन्दिग्ध नाम व्यवहार में नहीं रहा । प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश इन दोनों का पौर्वापर्य अभी सुनिश्चित नहीं श्रतएव यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि अमुक एक का प्रभाव दूसरे पर है तथापि न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद इन दोनों की विचारसरणी का
भिन्नत्व और पारस्परिक महत्त्व का भेद खास ध्यान देने योग्य है। न्यायप्रवेश में यद्यपि नाम तो श्रनैकान्तिक है सन्दिग्ध नहीं, फिर भी उसमें नैकान्तिकता का नियामक रूप प्रशस्तपाद की तरह संशयजनकत्व को ही माना है । श्रतएव न्यायप्रवेशकार ने अनैकान्तिक के छः भेद चतलाते हुए उनके सभी उदाहरणों में संशयजनकत्व स्पष्ट बतलाया है । प्रशस्तपाद न्यायप्रवेश की तरह संशय
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१ ' तत्र साधारणः - शब्दः प्रमेयत्वान्नित्य इति । तद्धि नित्यानित्यपक्षयोः
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जनकत्व को तो नैकान्तिकता का नियामक रूप मानते हैं सही, पर वे न्यायप्रवेश में अनैकान्तिक रूप से उदाहृत किये गए असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी इन दो भेदों को श्रनैकान्तिक या सन्दिग्ध हेत्वाभास में नहीं गिनते बल्कि न्यायप्रवेशसम्मत उक्त दोनों हेत्वाभासों की सन्दिग्धता का यह कह कर के खण्डन करते हैं कि असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी संशयजनक ही नहीं ? | प्रशस्तपाद के खण्डनीय भागवाला कोई पूर्ववर्ती वैशेषिक ग्रन्थ या न्यायप्रवेशभिन्न बौद्धग्रन्थ न मिले तब तक यह कहा जा सकता है कि शायद प्रशस्तपाद ने न्यायप्रवेश का ही खण्डन किया है। जो कुछ हो, यह तो निश्चित ही है कि प्रशस्तपाद ने असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी को सन्दिग्ध या अनैकान्तिक मानने से इन्कार किया है । प्रशस्तपाद ने इस प्रश्न का, कि क्या तब असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी कोई हेत्वाभास ही नहीं ?, जबाब भी बड़ी बुद्धिमानी से दिया है । प्रशस्तपाद कहते हैं कि असाधारण हेत्वाभास है सही पर वह संशयजनक न होने से अनैकान्तिक नहीं, किन्तु उसे श्रनध्यवसित कहना चाहिए । इसी तरह वे विरुद्धाव्यभिचारी को संशयजनक न मानकर या तो श्रसाधातुरूप श्रनध्यवसित में गिनते हैं या उसे विरुद्धविशेष ही कहते ( श्रयं तु विरुद्धभेद एव प्रश० पृ० २३६ ) हैं । कुछ भी हो पर वे किसी तरह असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी को न्यायप्रवेश की तरह संशयजनक मानने को तैयार नहीं हैं फिर भी वे उन दोनों को किसी न किसी हेत्वाभास में सन्निविष्ट करते ही हैं । इस चर्चा के सम्बन्ध में प्रशस्तपाद की और भी दो बातें खास ध्यान देने योग्य हैं। पहली तो यह है कि श्रनध्यवसित नामक
साधारणत्वादनैकान्तिकम् । किम् बटवत् प्रमेयत्वादनित्यः शब्दः श्राहोस्विदाकाशवत्प्रमेयत्वानित्य इति । - इत्यादि-न्यायप्र० पृ० ३ ।
१ 'असाधारणः - श्रावणत्वान्नित्य इति । तद्धि नित्यानित्यपक्षाभ्यां व्यावृत्तत्वान्नित्यानित्यविनिर्मुक्तस्य चान्यस्यासम्भवात् संशयहेतुः किम्भूतस्यास्य श्रावणत्वमिति । ..... विरुद्धाव्यभिचारी यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत्; नित्यशब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववदिति । उभयोः संशयहेतुत्वात् द्वावप्येतोवेकोकान्तिकः समुदितावेव । न्यायप्र० पृ० ३,४ । 'एकस्मिंश्च द्वयोर्हेोर्यथोक्तलक्षणयोर्विरुद्धयोः सन्निपाते सति संशयदर्शनादयमन्यः सन्दिग्ध इति केचित् यथा मूर्तत्वामूर्तत्वं प्रति मनसः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वयोरिति । नन्वयमसाधारण एवाचाक्षुषत्व प्रत्यक्षत्ववत् संहतयोरन्यतरपक्षासम्भवात् ततश्चानध्यवसित इति वक्ष्यामः ।'- प्रशस्त्र० पृ० २३८, २३६ ॥
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हेत्वाभास की कल्पना और दूसरी यह कि न्यायप्रवेशगत विरुद्धाव्यभिचारी के उदाहरण से विभिन्न उदाहरण को लेकर विरुद्धाव्यभिचारी को संशयजनक मानने न मानने का शास्त्रार्थ । यह कहा नहीं जा सकता कि कणादसूत्र में अविद्यमान अनध्यवसित पद पहिले पहल प्रशस्तपाद ने ही प्रयुक्त किया या उसके पहिले भी इसका प्रयोग अलग हेत्वाभास अर्थ में रहा । न्यायप्रवेश में विरुद्धाव्यभिचारी का उदाहरण-नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववत्, अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत्' यह है, जब कि प्रशस्तपाद में उदाहरण'मनः मूर्तम् क्रियावत्वात; मनः अमूर्तम् अस्पशवत्त्वात्'-यह है। प्रशस्तपाद का उदाहरण तो वैशेषिक प्रक्रिया अनुसार है ही, पर आश्चर्य की बात यह है कि बौद्ध न्यायप्रवेश का उदाहरण खुद बौद्ध प्रक्रिया के अनुसार न होकर एक तरह से वैदिक प्रक्रिया के अनुसार ही है क्योंकि जैसे वैशेषिक श्रादि वैदिक तार्किक शब्दत्व को जातिरूप मानते हैं वैसे बौद्ध तार्किक जाति को नित्य नहीं मानते । अस्तु, यह विवाद आगे भी चला।
तार्किकप्रवर धर्मकीर्ति ने हेत्वाभास की प्ररूपणा बौद्धसम्मत हेतुत्ररूप्य के' आधार पर की, जो उनके पूर्ववर्ती बौद्ध ग्रन्थों में अभी तक देखने में नहीं आई। जान पड़ता है प्रशस्तपाद का अनैकान्तिक हेत्वाभास विषय बौद्ध मन्तव्य का खण्डन बराबर धर्मकीर्चि के ध्यान में रहा। उन्होंने प्रशस्तपाद को जवाब देकर न्यायप्रवेश का बचाव किया । धर्मकीर्चि ने व्यभिचार को अनेंकास्तिकता का नियामकरूप न्यायसूत्र की तरह माना फिर भी उन्होंने न्यायप्रवेश
और प्रशस्तपाद की तरह संशयजनकत्व को भी उसका नियामक रूप मान लिया। प्रशस्तपाद ने न्यायप्रवेशसम्मत असाधारण को अनैकान्तिक मानने का यह कहकर के खण्डन किया था कि वह संशयजनक नहीं हैं। इसका जवाब धर्मकीर्ति ने असाधारण का न्यायप्रवेश की अपेक्षा जुदा उदाहरण रचकर और उसकी संशयजनकता दिखाकर, दिया और बतलाया कि असाधारण अनेकान्तिक हेत्वाभास ही है । इतना करके ही धर्मकीनि सन्तुष्ट न रहे पर अपने मान्य
१ 'तत्र त्रयाणां रूपाणामेकस्यापि रूपस्यानुत्तौ साधनाभासः । उक्तावप्य. सिद्धौ सन्देहे वा प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोः । एकस्य रूपस्य'.. .. इत्यादि -न्याबि० ३.५७ से।
२ 'अनयोरेव दयो रूपयोः संदेहेऽनैकान्तिकः । यथा सात्मकं जीपच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादिति ।......अत एवान्वयव्यतिरेकयो: संदेहादनकान्तिकः । साध्येतरयोरतो निश्चयाभावात् ।'-न्यायबि० ३. ६८-११० ।
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आचार्य दिङ्नाग की परम्परा को प्रतिष्ठित बनाए रखने का और भी प्रयत्न किया । प्रशस्तपाद ने विरुद्धाव्यभिचारी के खण्डन में जो दलील दी थी उसको स्वीकार करके भी प्रशस्तपाद के खण्डन के विरुद्ध उन्होंने विरुद्धाव्यभिचारी का समर्थन किया और वह भी इस ढंग से कि दिङ्नाग की प्रतिष्ठा भी बनी रहे और प्रशस्तपाद का जवाब भी हो। ऐसा करते समय धर्मकीर्त्ति ने विरुद्धाव्यभिचारी का जो उदाहरण दिया है वह न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद के उदाहरण से जुदा है फिर भी वह उदाहरण वैशेषिक प्रक्रिया के अनुसार होने से प्रशस्तपाद को ग्राह्य नहीं हो सकता । इस तरह बौद्ध और वैदिक तार्किकों की इस विषय में यहाँ तक चर्चा आई जिसका अन्त न्यायमञ्जरी में हुआ जान पड़ता है । जयन्त फिर अपने पूर्वाचार्यों का पक्ष लेकर न्यायप्रवेश और धर्मकीर्त्ति के न्यायबिन्दु का सामना करते हैं। वे असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी को नैकान्तिक न मानने का प्रशस्तपादगत मत का बड़े विस्तार से समर्थन करते हैं पर साथ ही वे संशयजनकत्व को अनैकान्तिकता का नियामक रूप मानने से भी इन्कार करते हैं ।
भासर्वज्ञ ने बौद्ध, वैदिक तार्किकों के प्रस्तुत विवाद का स्पर्श न कर अनैकान्तिक हेत्वाभास के आठ उदाहरण दिये हैं ( न्यायसार पृ० १० ), और कहीं संशयजनकता का उल्लेख नहीं किया है । जान पड़ता है वह गौतमीय परम्परा का अनुगामी है ।
१ 'विरुद्धाञ्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः । स इह कस्मान्नोक्तः । ...... श्रत्रोदाहरणं यत्सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिर्युगपदभिसम्बध्यते तत्सर्वगतं यथाऽकाशम्, अभिसम्बध्यते सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिर्युगपत् सामान्यमिति । ...... द्वितीयोऽपि प्रयोगो यदुपलब्धिलक्षणप्रासं सन्नोपलभ्यते न तत् तत्रास्ति । तद्यथा rafaविद्यमान घटः । नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणप्राप्तं सामान्यं व्यक्त्यन्तरालेष्विति । श्रयमनुपलम्भप्रयोगः स्वभावश्च परस्परविरुद्धार्थसाधनादेकत्र संशयं जनयतः । - न्यायचि० ३. ११२-१२१ ।
२ साधारणविरुद्वाव्यभिचारिणौ तु न संस्त एव हेत्वाभासाविति न व्याख्यायेते ।.......................अपि च संशयजननमनैकान्तिकलक्षणमुच्यते चेत् काममसाधारणस्य विरुद्धाव्यभिचारिणो वा यथा तथा संशयहेतुतामधिरोप्य कथ्यतामनैकान्तिकता न तु संशयजनकत्वं तल्लक्षणम्.... अपि तु पक्षद्वयवृत्तित्वमनैकान्तिक.....' - भ्यायम० पृ० ५६८-५६६ ।
लक्षणम्
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________________ 206 जैन परम्परा में अनेकान्तिक और सन्दिग्ध यह दोनों ही नाम मिलते हैं। अकलङ्क (न्यायवि० 2. 166 ) सन्दिग्ध शब्द का प्रयोग करते हैं जब कि सिद्धसेन (न्याया० 23) आदि अन्य जैन तार्किक अनैकान्तिक पद का प्रयोग करते हैं / माणिक्यनन्दी की अनैकान्तिक निरूपण विषयक सूत्ररचना श्रा० हेमचन्द की सूत्ररचना की तरह हो वस्तुतः न्यायबिन्दु की सूत्ररचना की संक्षिस प्रतिच्छाया है / इस विषय में वादिदेव की सूत्ररचना वैसी परिमार्जित नहीं जैसी माणिक्यनन्दी और हेमचन्द्र की है, क्योंकि वादिदेव ने अनैकान्तिक के सामान्य लक्षण में ही जो 'सन्दिह्यते' का प्रयोग किया है वह जरूरी नहीं जान पड़ता / जो कुछ हो पर इस बारे में प्रभाचन्द्र, वादिदेव और हेमचन्द्र इन तीनों का एक ही मार्ग है कि वे सभी अपने-अपने ग्रन्थों में भासर्वज्ञ के पाठ प्रकार के अनैकान्तिक को लेकर अपने-अपने लक्षण में समाविष्ट करते हैं। प्रभाचन्द्र के (प्रमेयक० पृ० 162) सिवाय औरों के ग्रन्थों में तो पाठ उदाहरण भी वे ही हैं जो न्यायसार में हैं। प्रभाचन्द्र ने कुछ उदाहरण बदले हैं। यहाँ यह स्मरण रहे कि किसी जैनाचार्य ने साध्यसंदेहजनकत्व को या साध्यव्यभिचार को अनैकान्तिकता का नियामक रूप मानने न मानने की बौद्धवैशेषिकग्रन्थगत चर्चा को नहीं लिया है। ई० 1636 ] [प्रमाण मीमांसा