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कान्तिक हेत्वाभास
नैकान्तिक हेत्वाभास के नाम के विषय में मुख्य दो परम्पराएँ प्राचीन हैं। पहली गौतम की और दूसरी करणाद की। गौतम अपने न्यायसूत्र में जिसे सम्यभिचार ( १. २. ५. ) कहते हैं उसी को कणाद अपने सूत्रों (३.१.१५ ) में सन्दिग्ध कहते हैं । इस नामभेद की परम्परा भी कुछ श्रर्थ रखती है और वह अर्थ अगले सत्र व्याख्याग्रन्थों से स्पष्ट हो जाता है । वह अर्थ यह है कि एक परम्परा श्रनैकान्तिकता को अर्थात् साध्य और उसके अभाव के साथ हेतु के साहचर्य को, सम्यभिचार हेत्वाभास का नियामक रूप मानती है संशयजनकत्व को नहीं जब दूसरी परम्परा संशयजनकत्व को तो श्रनैकान्तिक हेत्वाभासता का नियामक रूप मानती है साध्य तदभावसाहचर्य को नहीं। पहली परम्परा के अनुसार जो हेतु साध्य - तदभावसहचरित है चाहे वह संशयजनक हो या नहीं-वही सव्यभिचार या श्रनैकान्तिक कहलाता है । दूसरी परम्परा के अनुसार जो हेतु संशयजनक है - चाहे वह साध्य - तदभावसहचरित हो या नहीं-वही श्रनैकान्तिक या सव्यभिचार कहलाता है । अनैकान्तिकता के इस नियामकभेदवाली दो उक्त परम्पराओं के अनुसार उदाहरणों में भी अन्तर पड़ जाता है । श्रतएव गौतम की परम्परा में असाधारण या विरुद्धाव्यभिचारी का श्रनैकान्तिक हेत्वाभास में स्थान सम्भव ही नहीं क्योंकि वे दोनों साध्याभावसहचरित नहीं । उक्त सार्थकनामभेद वाली दोनों परम्पराओं के परस्पर भिन्न ऐसे दो दृष्टिकोण आगे भी चालू रहे पर उत्तरवर्ती सभी तर्कशास्त्रों में- चाहे वे वैदिक हों, बौद्ध हों, या जैन-नाम तो केवल गौतमीय परम्परा का श्रनैकान्तिक ही जारी रहा । कणादीय परम्परा का सन्दिग्ध नाम व्यवहार में नहीं रहा । प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश इन दोनों का पौर्वापर्य अभी सुनिश्चित नहीं श्रतएव यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि अमुक एक का प्रभाव दूसरे पर है तथापि न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद इन दोनों की विचारसरणी का
भिन्नत्व और पारस्परिक महत्त्व का भेद खास ध्यान देने योग्य है। न्यायप्रवेश में यद्यपि नाम तो श्रनैकान्तिक है सन्दिग्ध नहीं, फिर भी उसमें नैकान्तिकता का नियामक रूप प्रशस्तपाद की तरह संशयजनकत्व को ही माना है । श्रतएव न्यायप्रवेशकार ने अनैकान्तिक के छः भेद चतलाते हुए उनके सभी उदाहरणों में संशयजनकत्व स्पष्ट बतलाया है । प्रशस्तपाद न्यायप्रवेश की तरह संशय
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१ ' तत्र साधारणः - शब्दः प्रमेयत्वान्नित्य इति । तद्धि नित्यानित्यपक्षयोः
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