________________ 206 जैन परम्परा में अनेकान्तिक और सन्दिग्ध यह दोनों ही नाम मिलते हैं। अकलङ्क (न्यायवि० 2. 166 ) सन्दिग्ध शब्द का प्रयोग करते हैं जब कि सिद्धसेन (न्याया० 23) आदि अन्य जैन तार्किक अनैकान्तिक पद का प्रयोग करते हैं / माणिक्यनन्दी की अनैकान्तिक निरूपण विषयक सूत्ररचना श्रा० हेमचन्द की सूत्ररचना की तरह हो वस्तुतः न्यायबिन्दु की सूत्ररचना की संक्षिस प्रतिच्छाया है / इस विषय में वादिदेव की सूत्ररचना वैसी परिमार्जित नहीं जैसी माणिक्यनन्दी और हेमचन्द्र की है, क्योंकि वादिदेव ने अनैकान्तिक के सामान्य लक्षण में ही जो 'सन्दिह्यते' का प्रयोग किया है वह जरूरी नहीं जान पड़ता / जो कुछ हो पर इस बारे में प्रभाचन्द्र, वादिदेव और हेमचन्द्र इन तीनों का एक ही मार्ग है कि वे सभी अपने-अपने ग्रन्थों में भासर्वज्ञ के पाठ प्रकार के अनैकान्तिक को लेकर अपने-अपने लक्षण में समाविष्ट करते हैं। प्रभाचन्द्र के (प्रमेयक० पृ० 162) सिवाय औरों के ग्रन्थों में तो पाठ उदाहरण भी वे ही हैं जो न्यायसार में हैं। प्रभाचन्द्र ने कुछ उदाहरण बदले हैं। यहाँ यह स्मरण रहे कि किसी जैनाचार्य ने साध्यसंदेहजनकत्व को या साध्यव्यभिचार को अनैकान्तिकता का नियामक रूप मानने न मानने की बौद्धवैशेषिकग्रन्थगत चर्चा को नहीं लिया है। ई० 1636 ] [प्रमाण मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org