Book Title: Haribhadra Yogbharti Author(s): Abhayshekharsuri Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 9
________________ प्रथमावृत्ति की प्रस्तावना श्री तीर्थंकर परमात्मा के मूलस्रोत से बहती हुयी और श्री गणधर देवों के द्वारा उपवाहित की गयी ज्ञानगंगा की गहराई में उतर कर महामहीम तर्कसम्राट आचार्यदेव श्रीमद् हरिभद्रसूरि महाराज ने जो सेंकडों सुश्लिष्ट विद्वद्भोग्य ग्रन्थरत्नों का संकलन किया उनमें से समानविषयक चार योगग्रन्थों का यह उपहार चिर काल तक प्रबुद्ध विद्वानों के हृदय में आनंद भरता रहेगा । योगविंशिका-योगशतक-योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु ये चारों ग्रन्थ का शरीर क्रमशः बृहद् बृहत्तर हैं । प्रत्येक में जैनयोग का ही भिन्न भिन्न शैली से प्रतिपादन किया गया है । प्रत्येक ग्रन्थ में विषय का भी प्रतिपादन उत्तरोत्तर गूढ गूढतर शैली से किया गया है । जैनशास्त्रों में सर्वाधिक प्रसिद्ध आध्यात्मिक उत्थान के 14 गुणस्थानकों की प्रक्रिया को केन्द्रस्थान में रख कर भिन्न भिन्न प्रकार से आध्यात्मिक उन्नति के .सोपानपथ को इन ग्रन्थों में प्रतिफलित किया गया हैं । योगविंशिका के अतिरिक्त प्रत्येक में जैनेतर दर्शनों की भी पक्षपातहीन मीमांसा-आलोचना और यथाघटित समन्वय प्रस्तुत किये गये हैं । _ 'योगविंशिका' यह 'विंशतिविंशिका' नामक प्रकरणान्तर्गत एक योगविषयक २० श्लोकों की लघुकृति है । इसमें स्थान-ऊर्ण-अर्थ-आलंबन और अनालम्बन पांच प्रकार के योग का गहराई से प्रतिपादन है । स्थानादियोग के अधिकारी, स्थानादि गत इच्छा-प्रवृत्ति-स्थिर-सिद्धि इन चार उपभेदों, उनके हेतुभेद और कार्यभेद, चैत्यवन्दन के दृष्टान्त से स्थानादि की योजना, अविधि समर्थन में तीर्थोच्छेदादि आलम्बनग्रहण का अनौचित्य और प्रीति-भक्ति-आगम-असंग इन चार अनुष्ठानभेद इत्यादि विषयों का इस लघुकृति में समावेश किया है । इस कृति के भाव से हम अनभिज्ञ ही रह जाते, अगर महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयमहाराज ने इस पर विवरण न किया होता, यह विवरण अत्यन्त अर्थगम्भीर और मूल के भावस्पर्शी होने से हृदयंगम बन गया है । मूल ग्रन्थ के भावोन्मीलन उपरान्त भी प्रणिधानादि पाँच आशय इत्यादि अधिक विषयों का स्पष्टीकरण किया गया है । _ 'योगशतक' ग्रन्थ के उपर मूलकर्ता ने ही स्फुट विवरण किया है । इस में सज्ज्ञान दर्शन और सच्चारित्र पीठिका में बताये गये हैं । तदनन्तर अपुनर्बन्धक आदि के लिङ्ग, मुनि को वासी-चन्दन की उपमा, उपदेशविधि, अकुशलकर्मोदय की चिकित्सा, कर्म और पुरुषकार का सम्बन्ध, कर्मोपक्रम के हेतु चतुःशरणादि, राग द्वेष-मोह तीन दोषों का स्वरूप, उनके प्रतिकार का उपाय, भावना योग, गुरुदेवता प्रणाम, पद्मासनादिस्थान और तद्विषयकचिन्ता, तत्त्वज्ञान, सर्वसम्पत्करी भिक्षा, लब्धि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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