Book Title: Gyan aur Karm Author(s): Rupnarayan Pandey Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya View full book textPage 8
________________ कूल रखते थे । 'मनःपूतं समाचरेत् ' सूत्र उनके जीवनका 'मोटो' था। देशमें ऐसे शिक्षित बहुत ही विरल हैं जिनका जीवन उनके समान सच्चारित्र्यके साँचेमें ढाला गया हो। वकालत जैसी जीविकाको करते हुए भी उन्होंने धन था मानके लिए कभी अपनी आत्माको नहीं बेचा । उनका जीवन निष्कलंक और पवित्र था। वे अतिशय निरहंकार, दयाल, सरल, द्वेषहीन और बालसरलतासे युक्त विद्वान् थे। उनका बर्ताव भी बहुत ही कोमल था। यही कारण है जो उनका कोई शत्रु नहीं था। अँगरेजीकी सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करके भी उन्होंने कभी हिन्दू आचार नहीं छोड़े। वे बहुत ही सादगीसे रहते थे और उनके भीतरी और बाहरी जीवनमें सदा आर्यजीवनकी झलक दिखलाई देती थी । 'गीता' उनका बहुत ही श्रद्धेय ग्रन्थ था। कहते हैं कि ' गीता' को वे सदैव अपने पाकेटमें रखते थे। उनका जन्म कलकत्तेके समीप नारिकेल-डांगा नामक स्थानमें, सन् १८४४ की २६ जनवरीको, एक साधारण ब्राह्मण कुलमें हुआ था। उनके पिता बहुत ही निर्धन पण्डित थे । माता-पिताके पास ब्राह्मणकी सच्ची सम्पत्ति पवित्रता और सदाचारके सिवाय और कुछ न था । पिता उन्हें अपनी गोदमें बिठा कर गीताके श्लोक सुनाया करते थे और इस तरह उनके आगामी जीवनका एक साँचा तैयार करते थे। परंतु गुरुदास बाबूको पिताकी यह शिक्षा बहुत समय तक नहीं मिली । उनका स्वर्गवास हो गया। उनके मरने पर इस दरिद्र परिवारका सारा भार इनकी विधवा माता परं पड़ा। वे बहुत ही कोमला और सचरित्रा थीं । अपने पुत्रको चरित्रवान् बनानेकी ओर उनका निरन्तर ध्यान रहता था। उनका प्रयत्न आशासे अधिक सफल भी हुआ । संसारमें बहुत कम मातायें ऐसी भाग्यवती होंगी जिनको गुरुदास जैसा आज्ञाकारी पुत्र प्राप्त हुआ हो । गुरुदास बाबू अपनी माताकी आज्ञाको वेदवाक्योंके समान पवित्र और माननीय समझते थे। उन्होंने जीवनभर माताकी आज्ञाओंको बिना कुछ 'ननु' 'न च ' किये माना । इस विषयमें उनकी अनेक कथायें प्रसिद्ध हैं । वे अपनी माताको कितना मानते थे, इसका निदर्शन एक इसी बातसे मिल जायगा कि माताकी मृत्यु होने पर वे महीनों तक उनके शोकमें व्याकुल रहे । एक बार उन्होंने कलकत्तेकी एक सभामें कहा था कि-" कौन ऐसा लड़का है जो कि बिना विरोध किये पुस्तकोंके कथनानुसार चलता है ?......मैंने अपनी ।Page Navigation
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