Book Title: Gurusthapana Shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ जान्युआरी-2007 बहुश्रुत होते हैं अत: वे ही सुगुरु हैं । अन्त में कवि कहता है कि इस लघु कृति में जो कुछ उत्सूत्र वचन लिखने में आया हो उसका संशोधन बहुश्रुत ज्ञानी मेरे ऊपर अनुग्रह करके करें । गुरु के उपदेश से ही जिनवचन का सार ग्रहण कर यह शतक लिखा है। विचारणीय प्रश्न है कि श्रावक के १२ व्रत कहे गए हैं । सुगुरु के अभाव में १२वा अतिथि संविभाग व्रत सम्भव नहीं है, किन्तु यथाछन्दी वेशधारी सुगुरु के अभाव में भी १२वा व्रत स्वीकार करते हैं (गाथा ३८ से ४०) । आज के समय में भी श्रावक धर्म की दृष्टि से यह कृति अत्यन्त ही उपादेय और आचरणीय है । गुरुस्थापना-शतक नमिरसुरमउडमाणिक्कतेयविच्छुरियपयनहं सम्मं । नमिऊण वद्धमाणं वुच्छं गुरुठावणा-सयगं ॥१॥ हीणमई अप्पसुओ अनाणसिरिसेहरो तहा धणियं । गंभीरागमसायर - पारं पावेउमसमत्थो ॥२॥ जुग्गोहमजुग्गो वि हु जाओ गुरुसेवणाइ तं जुत्तं । जं सूरसेवणाए चंदो वि कलाणिही जाओ ॥३॥ गुरुआगराओ सुत्तत्थ-रयणाणं गाहगा य तिन्नेव । रागेण य दोसेण य मज्झत्थत्तेण णेयव्वा ॥४॥ पढमो बीओऽणरिहो तइओ सुत्तत्थरयणजुग्गु त्ति । दिद्रुतो आयरिओ अंबेहि पओयणं जस्स ॥५॥ धम्मं विणयपहाणं जे(जं?) भणियं इत्थ सत्थगारेहि । सो कायव्वो चविहसंधो समणाइए सम्मं ।।६।। जं विणओ तं मुखं(क्खं?) छंडिज्जा पंडिएहिं नो कहवि । जं सुयरहिओ वि नरो विणएण खवेय(इ) कम्माई ।।७।। जिणसासणकप्पतरुमूलं साहू सुसावया साहा । मूलम्मि गए तत्थ य अवरं साहाइयं विहलं ॥८॥ सिरिपुंडरीयपमुहो दुप्पसहो जाव चउविहो संघो । भणिओ जिणेहि जम्हा न हु तेण विणा हवइ तित्थं ।।९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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