Book Title: Gurusthapana Shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ अनुसन्धान-३८ इसका मुख्य वर्ण्य विषय है :- गाथा १ एवं १०३ में इसका नाम गुरुथावणासयगं लिखा है । गाथा १०३ में सीधरेण रइयं से कवि ने अपना नाम सूचित किया है । धर्म विनयप्रधान है इस कारण चतुर्विध संघ को इसका अनुकरण करना चाहिए । यह धर्म और चतुर्विध संघ श्रीपुण्डरीक गणधर से प्रारम्भ होकर दुप्पसहसूरि तक स्थिर रहेगा । इस दुषम काल में श्रमण अल्प होंगे और मुण्ड अधिक होंगे । इसी कारण आचार्यगणों से धर्माधर्म की जानकारी श्रावकों को होती है । सुगुरु-कुगुरु का भेद करते हुए षष्ठ गुणस्थानीय प्रमत्त और सप्तम गुणस्थानीय अप्रमत्त का भगवती सूत्र के आधार पर भेद-विभेद दिखाते हुए सुन्दर विश्लेषण किया है । उन सुगुरुओं की कृपा से ही श्रमणोपासक नाम सार्थक होता है अन्यथा नहीं । सद्गुरु के प्रसाद से ही सत्अनुष्ठान, सात क्षेत्रों का ज्ञान, और सम्पूर्ण समाचारी का ज्ञान भी उन्हीं के उपदेश से प्राप्त हो सकता है । कई ऐसा कहते हैं कि वर्तमान में सुसाधु नहीं है ! उन्हें यह सोचना चाहिए कि सुधर्म स्वामी से जो साधुपरम्परा चल रही है वह आदरणीय एवं अनुकरणीय है। कई श्रावक लोग सुगुरु के अभाव में जो कि रागद्वेष से पूरित हैं, यथाछन्द, स्वच्छन्द हैं, अर्थात् वेशधारी होते हुए भी जो शिथिलाचारी हैं उन कुगुरुओं को सुगुरु मानकर जो व्रतादि ग्रहण करते हैं या दूसरों को प्रेरित करते हैं, वह सचमुच में धिक्कार के योग्य हैं । व्रत, अरिहंत, सिद्ध, साधु, देव और आत्मा के समक्ष ही ग्रहण किये जाते हैं, स्वच्छन्दमतियों के समीप नहीं । सुगुरु के अभाव में कई श्राद्ध इन वेशधारियों की निश्रा में जो व्रत-क्रियादि करते हैं वे वास्तव में अत्यन्त मूढ़ है। दुषम-सुषम काल में साधु के बिना धर्म विच्छिन्न हो जाता है तो इस दुषम काल की तो बात ही क्या ?। पल्लवग्राही पाण्डित्यधारक वेशधारी दर्शन से बाह्य हैं। सात निह्नवों का, कूलवालुक का उदाहरण देते हुए इनको शासन के प्रत्यनीक बताये है । अतएव ३६ गुणधारक आचार्य ही सुगुरु हैं, उनके आश्रय में ही धर्मादि कृत्य करने चाहिए । इस प्रकार सुगुरु और कुगुरु का भेद दिखाते हुए सुगुरु की निश्रा ही श्राद्ध के लिए ज्ञेय और उपादेय है तथ उन्हीं सुगुरुओं की आश्रय में समस्त धर्म-व्रतादि कृत्य करने से श्राद्ध का कल्याण हो सकता है, क्योंकि वे धर्म के पूर्ण जानकार, व्यवहार और निश्चय के जानकार तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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