Book Title: Gurugun Shattrinshat Shattrinshika
Author(s): Buddhisagarsuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ गुरुगुणष त्रिंशत्षट्त्रिंशिकावालावबोध. परमानंदतत्त्व निपात्तनो मूळ शुद्ध श्रद्धान छे, ते शुद्ध श्रद्धान देवतत्त्व, गुरुतत्त्व, धर्मतत्त्व, एहनी शुद्ध ओळखाण प्रतीत करे थाय, तिहां देव जे श्रीअरिहंत सिद्धस्वरूपभोगी स्वगुणपर्याय मागभाव करवे निर्मलीकृत स्वसत्तावंत स्वरूपकर्ता, स्वरूपभोक्ता, जेहने अवलंबी अनंताजीव शुद्धसत्ता करे पिण पोताना, परना सत्ताना कर्ता नथी, ते देवतस्व. ने एडवो शुद्धानंद पूर्णप्राग्भावताना रुचि तेहना ज्ञायक ते स्वरूपरमणी, सर्व आश्रवना त्यागी, विषयकषायथी विरक्त, ते गुरुतत्वथी आचार्य तेह छत्तीस गुणे विराजमान छे, ते छत्तीस छत्तीसी भिन्नभिन्नपणे छे तेहनो स्वरूप 'कित्तइस्सामि' कहीश्युं, भव्योने गुरुतत्त्व यथार्थ ओळखावा माटे. [१] - तिहां हवे प्रथम छत्रीसी कहे छेचउदेसणकहकुसलो, चउभावणधम्मसारणाइरओ। चउविहचउज्झाणविऊ, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२॥ टबार्थ-इहां आचार्य ते जे रत्नत्रयी परिणम्या अने आत्मार्थी जीवने शुद्ध धर्मनी प्ररूपवाने माटे जे छत्रीसी कहेवी ते सर्व रत्नत्रयीमयीज कहेवी, ते माटे प्रथम गुण जे उपदेशक ते माटे प्रथम छत्रीसीमां च्यार ४ देशना कहेवा मध्धे कुशळ माहीयार (होशीयार ). आक्षेपिणी १.विक्षेपिणी २. संवेदनी ३. निवेदनी ४. आक्षेप कहेतां जे आत्मा मोहनीय उदयवश पड्यो तेहने आक्षेप करी कहेवो जे रे जीव ! तुने अनंतकाल परभावरंगीपणे वर्त्ततां गयो कर्म करी रडवडतां अनंतकाल गयो ते हवे तुं ए परभाव तजी परधर्म संगी न था, xपाठांतरम्-चउविहदेसणकह, धम्धभावणासारणाइकुसलमह ॥ For Private and Personal Use Only

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