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अनुसन्धान ४५
शास्त्रं निरुच्यते" । अर्थात् हित शीखवे अने रक्षण करवानी शक्ति धरावे ते शास्त्र हवे आ श्लोक उपरनी टीका जोइशुं तो श्रीमद्जीनी विलक्षण प्रज्ञानो मजानो उन्मेष जोवा मळशे. तेमणे करेलो अर्थ कांईक आ प्रमाणे छे : "त्राणंरक्षणं तस्य शक्तिः - सामर्थ्यं यस्य सः, तस्य शासनात् - शिक्षणात् शास्त्रं निरुच्यते - व्युत्पाद्यते । अटपटो लागे तेवो पण आ अर्थ श्रीमद्जीनी क्षमताने समजवा माटे उपकारक छे.
तो आ त्रणेक उदाहरणोथी ज्ञानसार पर विवरण करवा माटे देवचन्द्रजीनो पूर्ण अधिकार होवानुं सिद्ध थाय छे; ज्ञानमञ्जरी ओ केवळ टीकाग्रन्थ न बनी रहेतां ते श्रीमद्जीनुं आगवुं सर्जनकर्म छे ओम पण पुरवार थई शके छे; अने तेरी श्रीमद्जी ते उपाध्यायजीना समानधर्मा होवानुं पण सुदृढ थाय छे. अने साथै ज आ ग्रन्थनां मर्म पामवानुं, आपणा बधा माटे, धारीओ छोओ तेटलुं सरळ नथी, ते वात पण निश्चित थई जाय छे.
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उपाध्यायजी महाराज अने देवचन्द्रजी महाराज आ बन्नेनी रुचि नय अने निक्षेपनी विचारणामां अक समान वर्तती जोवा मळे छे. दरेक पदार्थने आ बन्ने ग्रन्थकारो नयवादनी दृष्टि सतत मूलवता रहे छे, अने ते रीते क्यांय अकान्तवादनो गंध पण प्रवेशे नहि, तेनी चांपती काळजी राखता रहे छे. उपाध्यायजीना तर्कप्रधान ग्रन्थो नयप्रदीप, नयरहस्य, अनेकान्तव्यवस्था, नयोपदेश वगेरे; अने श्रीमद्जीना तत्त्वप्रधान ग्रन्थो नयचक्रसार वगेरे, आ बाबतनी साख पूरे छे.
ज्ञानमञ्जरीनुं अवगाहन करीओ तो त्यां पण आ बाबत आंखे ऊडीने वळगशे ज. लगभग के महर्दशे दरेक अष्टकनी टीका आरंभतां शरुआतनी भूमिका के अवतरणिकामां, जे ते अष्टकनो विषयनिर्देश करनारो जे शब्द होय, तेना ४ निक्षेपा श्रीमद्जीओ दर्शाव्या छे; अटलुं ज नहि, ते पदार्थ कया नयना मते क्या - क्यारे - केवी रीते संभवे, ते पण प्रायः साते नयोने आश्रयीने दर्शावता रह्या छे.
दा.त. पहेलुं पूर्णता - अष्टक छे, तो पूर्णना निक्षेप अने विविध नयमते पूर्ण कोण गणाय तेनी चर्चा प्रथमाष्टकना आठमा श्लोकनी टीकामां विस्तारथी
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