Book Title: Ek Lakh Parmaro ka Uddhar
Author(s): Navinchandra Vijaymuni
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 7
________________ परमार क्षत्रियों का उद्धार इस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रचार का कार्य छोटे रूप में धीरे धीरे चल रहा था। इस प्रचार कार्य को व्यवस्थित करने के लिए पंन्यास श्रीरंग विजयजी की प्रेरणा से सन् १९३६ में बोड़ेली में 'श्रीपरमार क्षत्रिय जैन धर्म प्रचारक सभा' की स्थापना हुई थी। जैन धर्म के इस प्रचार कार्य को अब बड़े स्तर पर और व्यापक रूप में करने की आवश्यकता थी। इस के लिए एक ऐसे कर्मठ साधु की आवश्यकता थी जो उनकी भाषा से रीति-रिवाजों से, मान्यताओं से और वहां की परिस्थितियों से भलीभांति परिचित हो। यह कितना सुनहरी संयोग था कि इधर उसी क्षेत्र के परमार क्षत्रिय वंश के प्रथम जैन साधु बने गणि श्री इन्द्र विजयजी इस प्रचार कार्य को आगे बढ़ाने के लिए बोड़ेली पधारे थे। वह सन् १९५६ वां साल था । गणि श्री इन्द्र विजयजी इस प्रचार कार्य में तन-मन से जुट गए और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । केवल एक नहीं दो नहीं, तीन नहीं, पांच नहीं, दस नहीं, किन्तु बारह वर्षों तक इस क्षेत्र में घर-घर, गली-गली, गांव-गांव प्रचार करते हुए घूमते रहे । उनके मन में बस एक ही विश्वास था कि मैं कैसे अधिक से अधिक लोगों को जिन का अनुयायी बनाऊँ और उन्हें समकित की प्राप्ति कराऊँ। अपनी बुलन्द आवाज, ज्ञान गाम्भीर्य एवं समझाने की सरल शैली के कारण इस क्षेत्र में उनके प्रवचनों की धूम मची रही । इसाई मिशनरी, रामानंदी और स्वामीनारायण सम्प्रदाय के धर्मगुरु यहां पहले से ही अपने धर्म और मत के प्रचार कार्य में लगे हुए थे। जैसे ही गणि इन्द्र विजयजी इस क्षेत्र में आए वे उनके सामने टिक नहीं पाए। गणि श्री इन्द्र विजयजी महाराज के बारह वर्षों के भगीरथ पुरुषार्थ के फलस्वरू इस क्षेत्र में एक लाख परमार क्षत्रिय भाई बहन (जिनमें पटेल भी सम्मलित है) नये जैन बने। ११५ मुमुक्षुओं ने दीक्षा अंगीकार की।६० गांवों में जिन मंदिर बने और उतने ही गांवों में जैन धार्मिक पाठशालाएं खोली गई । अब गणि श्री इन्द्र विजयजी 'परमार क्षत्रियोद्धारक' कहलाने लगे। शान्तमूर्ति आचार्य श्री विजय समुद्र सूरीश्वरजी महाराज ने उन्हें सन् १९७० में बसन्त पंचमी के दिन बरली, बम्बई में ‘आचार्य पद' से विभूषित किया। गणि श्री इन्द्र विजयजी महाराज अब आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी बन गए । सन् १९७७ में गुरु समुद्र ने उन्हें अपना पट्टधर घोषित किया। वर्तमान में संघ, समाज संचालन की महत् जिम्मेवारी को एक लाख परमारों का उद्धार : बीसवीं सदी का एक ऐतिहासिक कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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