Book Title: Dravyasangraha aur Nemichandra Siddhantidev
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 5
________________ ढंग से व्यक्त करता है । यह ग्रंथ आज भी लोकप्रिय बना हुआ है और उसपर अनेक हिन्दी - व्याख्याएँ उपलब्ध एवं प्रकाशित हैं । मराठीमें भी इसका कई बार अनुवाद छप चुका है। प्रो० शरच्चन्द्र घोषाल के सम्पादकत्वमें आरासेर सन् १९१७ में और जैन समाज पहाड़ीधीरज दिल्लीसे सन् १९५६ में अंग्रेजी में यह दो बार प्रकाशित हो चुका है । अनेक परीक्षालयोंके पाठ्यक्रम में भी यह वर्षोंसे निहित है । इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रन्थ कितना महत्त्व रखता है । (ख) लघु और बृहद् द्रव्यसंग्रह : श्रीब्रह्मदेव संस्कृत टीकाके आरम्भ में लिखा है कि 'श्रोनेमिचन्द सिद्धान्तिदेवने पहले २६ गाथाओं में 'लघु-द्रव्यसंग्रह' बनाया था, पीछे विशेष तत्त्वज्ञानके लिए उन्होंने 'बृहद् ब्रव्यसंग्रह' की रचना की थी ।' ब्रह्मदेव के इस कथन से जान पड़ता है कि ग्रन्थकारने द्रव्यसंग्रह लघु और बृहद् दोनों रूपमें रचा था - पहले लघुद्रव्यसंग्रह और पीछे कुछ विशेष कथन के लिए बृहद्रव्यसंग्रह । आश्चर्य नहीं कि उन्होंने इस प्रकारकी दो कृतियोंकी रचनाकी हो । जैन साहित्य में हमें इस प्रकारके प्रयत्न और भी मिलते हैं । मुनि अनन्तकीर्तिने पहले लघुसवंश सिद्धि और बादको बृहत्सर्वज्ञसिद्धि बनाई थी। उनकी ये दोनों कृतियाँ उपलब्ध एवं प्रकाशित हैं । कुछ विद्वानोंका खयाल है कि लघुद्रव्य संग्रहमें कुछ गाथाएँ बढ़ाकर उसे ही बृहद्रव्य-संग्रह नाम दे दिया गया है । परन्तु अनुसन्धानसे ऐसी बात मालूम नहीं होती; क्योंकि न तो संस्कृत टीकाकारके उक्त कथनपरसे प्रकट होता है और न दोनों ग्रन्थोंके अन्तःपरीक्षण से ही प्रतीत होता है । बृहद्रव्य संग्रहको लघुद्रव्य संग्रहका बृहद्रूप माननेपर उपलब्ध बृहद्रव्य संग्रह में लघुद्रब्य संग्रहकी सभी गाथाएँ पायी जानी चाहिए थीं । परन्तु ऐसा नहीं है । धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी लक्षणपरक तीन गाथाओं नं० ८, ९, १० और काललक्षणप्रतिपादिका गाथा नं० ११ के पूर्वार्ध तथा गाथा नं० १२ व १४ को, जो बृहद्रव्यसंग्रमें क्रमशः नं० १७, १८, १९, २१ (पूर्वार्ध), २२ और २७ पर पायी जाती हैं, छोड़कर इसकी शेष सब ( १९३ ) गाथाएँ बृहद्रव्यसंग्रहसे भिन्न हैं । इससे प्रकट है कि लघुद्रव्य संग्रह में कुछ गाथाओं की वृद्धि करके उसे ही बृहद् रूप नहीं दिया गया है, अपितु दोनोंको स्वतंत्र रूप से रचा गया है और इसीसे दोनोंके मङ्गल-पद्य तथा उपसंहारात्मक अन्तिम पद्य भी भिन्न-भिन्न हैं । १., २. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, 'द्रव्यसंग्रह -समालोचना', जैन हितैषी, वर्ष १३, अङ्क १२, (सन् १९१८) पृ० ५४१ । ३.४. 'श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवः पूर्वं षड्विंशतिगाथाभिर्लघुद्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद्विनेयतत्त्वपरिज्ञानार्थं विरचितस्य बृहद्रव्यसंग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारभ्यते । - सं० टी० पृ० ४ । ५. जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिद्दिट्ठ । देविदविदवंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥१॥ - मंगल-पद्य, बृहद्रव्यसं० । छद्रव्य पंच अत्थी सत्त वि तच्चाणि णवपयत्था य । गुप्पाय धुवत्ता णिद्दिट्टा जेण सो जिणो जयउ || १|| - मंगल-पद्य, लघुद्रव्यसं० । ६. दव्वसंग हमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा । सोधयंतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंदमुणिणा मणियं जं ॥ ५८ ॥ - उपसंहा० पद्य, बृहद्रव्यसं० । सोमच्छलेन रइया पयस्थ - लक्खणकराउ गाहाओ । भव्वुवयार - णिमित्तं गणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥ २५ ॥ - उपसंहारात्मक पद्य, लघुद्रव्यसं० । Jain Education International - ३२० - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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