Book Title: Dravyasangraha aur Nemichandra Siddhantidev
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
View full book text
________________
इन चार नेमिचन्द्रोंके सिवाय, सम्भव है, और भी नेमिचन्द्र हुए हों। पर अभीतक हमें इन चारका ही पता चला है। __ अब विचारणीय है कि ये चारों नेमिचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं अथवा भिन्न-भिन्न ?
१. जहाँ तक प्रथम और तृतीय नेमिचन्द्र की बात है, ये दोनों एक व्यक्ति नहीं है। प्रथम नेमिचन्द्र तो मूल ग्रन्थकार हैं और तीसरे नेमिचन्द्र उनके टीकाकार हैं। तथा प्रथम नेमिचन्द्रका समय विक्रमको ११ वीं शताब्दी है और तीसरे नेमिचन्द्रका ईसा की १६ वीं शताब्दी है । अतः इन दोनों नेमिचन्द्रोंके पौर्वापर्यमें प्रायः ५०० वर्षका अन्तर होनेसे वे दोनों एक नहीं है ।
२. प्रथम तथा द्वितीय नेमिचन्द्र भी एक नहीं हैं। प्रथम नेमिचन्द्र जहाँ विक्रमकी ११ वीं शताब्दी (वि० सं० १०३५) में हुए हैं। वहाँ द्वितीय नेमिचन्द्र उनसे लगभग १०० वर्ष पीछे-१२ वीं शताब्दी (वि० सं० ११२५) के विद्वान् हैं; क्योंकि द्वितीय नेमिचन्द्र वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवके गुरु थे और वसुनन्दिका समय १२वीं शताब्दी (वि० सं० ११५०) है । इसके अलावा, प्रथम नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहे जाते हैं और दूसरे नेमिचन्द्र मिद्धान्तिदेव ।
३. प्रथम और चतुर्थ नेमिचन्द्र भी भिन्न है। चतुर्थ नेमिचन्द्र जहाँ अपनेको 'तनुसूत्रधर' (अल्पज्ञ) कहते हैं वहाँ प्रथम नेमिचन्द्र चक्रवतों की तरह सिद्धान्तके छह खण्डोंका विजेता-'सिद्धान्तचक्रवर्ती' अपनेको प्रकट करते हैं। संस्कृतटीकाकार ब्रह्मदेवने भी अपनी टीकामें द्रव्यसंग्रहकार चौथे नेमिचन्द्रको जगह-जगह 'सिद्धान्तिदेव' ही लिखा है", सिद्धान्तचक्रवर्ती नहीं । अपि च, प्रथम नेमिचन्द्र अपने गरुओंका उल्लेख करते हुए पाये जाते हैं , पर चौथे नेमिचन्द्र ऐसा कुछ नहीं करते-मात्र अपना ही नाम देते देखे जाते है । इसके अतिरिक्त दोनोंमें मान्यताभेद भी है । प्रथम नेमिचन्द्रने भावास्रवके जो भेद (५७) गिनाये हैं वे द्रव्यसंग्रहकार-द्वारा प्रतिपादित भावास्रवके भेदों (३२) से भिन्न हैं१२ । इसके अलावा, प्रथम नेमिचन्द्र दक्षिण भारतके
१. डा० ए० एन० उपाध्ये, अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० ११३-१२० । तथा पं० जुगलकिशोर मुख्तार,
पुरातन जैन वाक्य-सूचीको प्रस्तावना पृ० ८९ । २. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १ । ३. वही। ४. पुरातन जैन वाक्यसूचीको प्रस्तावना पृ० १९० । ५. द्रव्यसंग्रह, गाथा ५८ । ६. गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, गा० ३९७ । ७. द्रव्यसंग्रह-संस्कृतटीका, प० २, ५, ५८ आदि । ८. कर्मकाण्ड, गाथा ४३६, ७८५, त्रिलोकसार गा० १०१८, लब्धिसार गा० ४४८ । ९. बृ० द्रव्यसंग्रह, मा० ५८, लघुद्रव्यसं० गा० २५ । १०. मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य आसवा होति ।
पण वारस पणवीसं पण्णरसा होति तब्भेया ।।-गोम्म० कर्म०, गा० ७८६ । ११. मिच्छत्ताविरदि-पमाद-जोग-कोहादओऽथ विष्णेया ।
पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥-द्रव्यसं०, गा० ३० । १२. टीका पृ० ४,१०९, ११२,११६, २०४ ।
-३२६ -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org