Book Title: Dravyasangraha aur Nemichandra Siddhantidev
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 17
________________ देखते हुए यह सम्भावना अवश्य की जा सकती है कि उनने और भी कृतियोंका निर्माण किया होगा, जो या तो 'लुप्त हो गई' या शास्त्र भण्डारोंमें अज्ञात दशा में पड़ी होंगीं । (झ) ब्रह्मदेव ब्रह्मदेव श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव के बृहद्रव्यसंग्रहके संस्कृत टीकाकार हैं और वे उनके ग्रन्थोंसे बहुत परिचित एवं प्रभावित मालूम पड़ते हैं । अतः उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और समय के सम्बन्धमें भी यहाँ विचार करना अनुचित न होगा । (१) व्यक्तित्व श्रीब्रह्मदेवकी रचनाओंपरसे उनके व्यक्तित्वका अच्छा परिचय मिलता है । प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत तीनों भाषाओंके पण्डित थे और तीनोंमें उनका अबाध प्रवेश दिखाई देता है । वे अध्यात्मकी चर्चा करते हुए उसके रस में स्वयं तो निमग्न होते ही हैं, किन्तु पाठकों को भी उसमें तन्मय कर देनेकी क्षमता रखते हैं ।' इससे वे स्पष्टतया आध्यात्मिक विद्वान् जान पड़ते हैं । लेकिन इससे यह न समझ लिया जाय कि वे केवल आध्यात्मिक ही विद्वान् थे । वरन् द्रव्यानुयोगकी चर्चाके साथ प्रथमानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग के बीसियों ग्रन्थोंके उद्धरण देकर वे अपना चारों अनुयोगोंका पाण्डित्य एवं बहुश्रुतत्व भी ख्यापित करते हैं । पंचास्तिकायकी तात्पर्यवृत्ति में जयसेनने और परमात्मप्रकाशको कन्नड-टीका में मलधारी बालचन्द्र ने उनका पूरा अनुकरण किया है । पदच्छेद, उत्थानिका, अधिकारों और अन्तराधिकारोंकी कल्पना इन दोनों विद्वानोंने ब्रह्मदेवसे ली है । शब्दसाम्य और अर्थसाम्य तो अनेकत्र है । समयका विचार करते समय हम आगे दिखायेंगे कि जयसेनका अनुकरण ब्रह्मदेवने नहीं किया, अपितु ब्रह्मदेवका जयसेनने किया है । (२) कृतित्व ब्रह्मदेवकी निम्न रचनाएँ मानी जाती हैं। १. परमात्मप्रकाशवृत्ति, २. बृहद्रव्य संग्रहवृत्ति, ३ तत्त्वदीपक, ४. ज्ञानदीपक, ५. त्रिवर्णाचारदीपक, ६. प्रतिष्ठातिलक, ७. विवाहपटल और ८. कथाकोश । परन्तु डा० ए० एन० उपाध्ये उनकी दो ही प्रामाणिक रचनाएँ बतलाते हैं? – एक परमात्मप्रकाशवृति और दूसरी बृहद्रव्यसंग्रहवृत्ति । १. परमात्मप्रकाशवृत्ति - परमात्मप्रकाशवृत्ति (परमप्पयासु ) श्री योगीन्द्रदेवकी अपभ्रंशमें रची महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमें आत्मा ही परमात्मा है, इसपर प्रकाश डाला गया है । ब्रह्मदेवने इसीपर संस्कृत में अपनी वृत्ति लिखी हैं, जिसे उन्होंने स्वयं 'परमात्मप्रकाशवृत्ति' कहा है । आध्यात्मिक पद्धति, पदच्छेद, उत्थानिका, सन्धिकी यथेच्छता, अधिकारों और अन्तराधिकारोंकी कल्पना ये सब बृहद्रव्य संग्रहवृत्तिकी तरह इसमें भी हैं । भाषा सरल और सुबोध है । (२) बृहद्रव्यसंग्रहवृत्ति- - इसका परिचय इसी प्रस्तावना में पृष्ठ २३ पर दिया जा चुका है । १. परमात्मप्रकाशवृत्ति (नई आवृत्ति ) १- २१४, पृ० ३५१ । २. परमात्मप्रकाश ( नई आवृत्ति), हिन्दी प्रस्तावना पृ० ११६ । ३. "सूत्राणां विवरणभूता परमात्मप्रकाशवृत्तिः समाप्ता ।' -डा० उपाध्ये, परमात्मप्रकाश अ० २ - २१४, पृ० ३५० । Jain Education International - ३३२ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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