Book Title: Dravya Author(s): Narayanlal Kachara Publisher: Narayanlal Kachara View full book textPage 1
________________ द्रव्य डॉ. नारायण लाल कछारा 1.1 जैन दर्शन में द्रव्य जैन दर्शन में सृष्टि के मौलिक पदार्थों के अर्थ में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। वह तत्व जो स्वभाव का त्याग किए बिना उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य युक्त हो, जैन दर्शन का द्रव्य है। हमारे सामने जड़ चेतन जो कुछ है, वह सब कुछ द्रव्य है। छः द्रव्यों से परिपूर्ण इस सृष्टि को जैन दर्शन में लोक कहा जाता है। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि अनादि अनंत है, उसमें न तो नया उत्पाद है और न प्राप्त सत् का विनाश है वह मात्र पर्याय परिवर्तन करता रहता है। दार्शनिक क्षेत्र में द्रव्य उसे ही कहते हैं जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में प्रतिपल परिणमन तो करें, परंतु अपने मौलिक स्वभाव की अपेक्षा नित्य रहे । सत् और द्रव्य एक ही है, अथवा यह भी कह सकते हैं. जो सत है, वही द्रव्य है द्रव्य और सत्ता, इनमें मात्र शब्द भेद हैं, अर्थभेद नहीं। न तो असत् से सत् उत्पन्न होते है और न सत् का कभी विनाश होता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इस त्रयात्मक स्थिति का नाम सत् हैं। जो उत्पाद व्यय युक्त नहीं हैं वे सत् नहीं हैं। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु परिणामी नित्य है। प्रत्येक तत्व नित्य और अनित्य इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है । तत्व उत्पाद, व्यय और धौव्य इन धर्मों का समवाय है । जगत के समस्त पदार्थ नित्यानित्य है। अतः चेतन और जड़ मूर्त और अमूर्त, सूक्ष्म और स्थूल सभी उत्पत्ति व्यय एवं स्थिति रूप हैं। 1.2 द्रव्य के लक्षण जो गुण द्रव्य के तीन लक्षण हैं। जो सत् लक्षण वाला हो, जो उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य युक्त हो एवं पर्यायों का आश्रय हो, वही द्रव्य है। गुण और पर्याय के साथ सत्, जिसे द्रव्य कहते हैं, का तन्मयत्व है। द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों एक साथ पाये जाते हैं, इन तीनों का सहअस्तित्व है। तीनों मे से एक भी विभक्त नहीं होता। द्रव्य में भेद करने वाले को गुण (अन्वयी) और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय ही वस्तु है द्रव्य के बिना पर्याय नहीं ओर पर्याय के बिना द्रव्य नहीं तथा गुण के बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य के बिना गुण नहीं। | द्रव्य मे गुण सहवर्ती एवं पर्याय क्रमवर्ती कहलाते हैं सहभावी धर्म तत्व की स्थिति और क्रम भावी धर्म तत्व की गतिशीलता के सूचक होते हैं। पर्याय परिणाम प्रतिपल होता रहता है । द्रव्य की उत्पादव्ययात्मक जो पर्यायें है, वे क्रमभावी हैं। उत्पाद नाश के बिना नहीं और नाश उत्पत्ति के बिना नहीं होता। जब तक किसी एक पर्याय का नाश नहीं, दूसरे पर्याय की उत्पत्ति संभव नहीं और जब तक किसी अपर पर्याय की उत्पत्ति नहीं, पूर्व पर्याय का नाश भी संभव नहीं। एक समय में एक द्रव्य में अनेक उत्पाद और विनाश होते हैं । 1.3 षद्रव्य TI जैन दर्शन ने द्रव्य छह माने हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुदगलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं काल । ये सभी द्रव्य परस्पर मिश्रित रहकर एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर मिल जाते हैं फिर भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते । अस्तिकाय का सिद्धांत जैन दर्शन का सर्वथा मौलिक सिद्धान्त है। यह अस्तित्व का वाचक है पांच अस्तिकाय निरपेक्ष अस्तित्व हैं जैसे पुद्गल के परमाणु होते हैं, वैसे ही चार अस्तिकाय के भी परमाणु होते हैं उनके परमाणु पृथक-पृथक नहीं होते, वे सदा अपृथक् रहते हैं, इसलिए वे प्रदेश कहलाते हैं। अस्ति शब्द के दो अर्थ हैं त्रैकालिक अस्तित्व और प्रदेश काय | 1 —Page Navigation
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