Book Title: Dodhak Vrutti
Author(s): Vajrasenvijay
Publisher: Jain Dharmik Tattvagyan Pathshala
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________________ प्राकृतव्याकरणस्य [ प्रथमः प्रथमः पादः सूत्रम्४ निअम्बसिल-खलिअ-वीइ-मालस्स - (=नितम्बशिला-स्खलित-वीचि-मालस्य) 6 [भीय-परित्ताण-मइं पहण्णमसिणो तुहाधिरूढस्य / मन्ने संका-विहुरे ] न वेरि-वग्गे वि अवयासो / गउडवहे गाथा 220 (=भीत-परित्राण-मयी प्रतिज्ञामसेः तंवाधिरूढस्य / मन्ये शङ्का-विधूरे न वैरि-वर्गेऽप्यवकाशः // ) 6 'वन्दामि अज्जवइरं ( =वन्दे आर्यवज्रम् / ) . 1. श्री महावीर जैन विद्यालयप्रकाशिते नन्दिसूत्रे पृ० 6 मध्ये ईदृशं टिप्पणं विद्यते 11 अष्टाविंशतितमगाथानन्तरं शु० प्रति विना सर्वास्वपि सूत्रप्रतिषु गाथायुगलमिदमधिकमुपलभ्यते वंदामि अज्जधम्मं वंदे तत्तो य भद्दगुत्तं च / तत्तो य प्रज्जवइरं तवनियमगुणेहिं वयर समं / / वंदामि अज्जरक्खियखमणे रक्खियचरित्तसव्वस्से / रयणकरंडगभूए अणुयोगो रक्खिओ जेहिं //

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