Book Title: Dighnikayo Part 1
Author(s): Vipassana Research Institute Igatpuri
Publisher: Vipassana Research Institute Igatpuri

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Page 347
________________ [३६] दीघनिकायो-१ 80565582228800mk0000000M अकुसलन्ति यथा भूतं इति सो उपादानभया आरब्भ एके समणब्राह्मणा विक्खेपिका तत्थ परं नानुस्सरति पवेदेति, येहि आघतनिका सञिवादा पवेदेति, येहि पवेदेति, येहि सन्ति, भिक्खवे जानासि न पस्ससि ब्राह्मणा वा उच्छेदवादा खो भो अयं असुखं उपेखासति पारिसुद्धिं न परामसति वत्थूहि तदपि तत्र, भिक्खवे वादा सस्सतं कप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो आघतनिका सञिवादा समणब्राह्मणा अन्तोजालिकता एवं मे सुतं मक्खलि गोसालो निगण्ठो नाटपुत्तो अजातसत्तु पणामेत्वा एकं तेन हि, महाराजा दानेन, दमेन दस खो गोसालस्स भासितं व्याकरेय्य लबुजं इत्थं खो मे भन्ते इत्थं खो मे भन्ते परम मरणा खो मे भन्ते Mworrim mrM420w-242WMWv_mM240mm 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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