Book Title: Digambar Jain Vratoddyapan Sangrah
Author(s): Fulchand Surchand Doshi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 14
________________ अथ दश दिक्पाल पूजा । [ ७ ॐ मां क्रों ह्रीं श्यामवर्ण प्रशस्तसर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहन चिह्न सपरिवार हे नैर्ऋतदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा । ॐ आं० अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्वाहा । ॐ आं० अत्र सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा । ॐ नैर्ऋताय स्वाहा ! नैर्ऋत परिजनाय स्वाहा | नैर्ऋतानुचराय स्वाहा | नैर्ऋता महत्तराय स्वाहा । अग्नेये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे नैर्ऋतदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमर्ध्यामित्यादि० यस्यार्थ० । शांतिधारा । पश्चिमायां दिशि । तालस्थूलायतोऽथ घृतकरकरकां भोजनीनागहारो । ग्रैवेयान्परम्यं करिमकरमारुह्य कान्तासमेतः ॥ आयत्तोद्यध्वरोव र्मिंरुणमणिगणालंकृतोद्दामवेषः । प्रत्यक्काष्टां प्रवालद्युतिरवत् पतियादृशां पाशपाणिः ॥ ५ ॥ ॐ आं क्रों ह्रीं सुवर्णवर्ण प्रशस्तसर्वलक्षण संपूर्णं स्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे वरुणदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा । ॐ आं० अत्र तिष्ठर ठः ठः स्वाहा । ॐ आं० अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा । ॐ वरुणाय स्वाहा । वरुणपरिजिनाय स्वाहा वरुणानुचराय स्वाहा । वरुण महत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वा. । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा । भुनः

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