Book Title: Digambar Granth Mulachar me Pratipadit Shramanachar Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 5
________________ 264 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 (6-10) समिति श्रमण के मूलगुणों में महाव्रतों के बाद चारित्र एवं संयम की प्रवृत्ति हेतु ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान एवं प्रतिष्ठापनिका-इन पाँच समितियों का क्रम है।" महाव्रतमूलक सम्पूर्ण श्रमणाचार का व्यवहार इनके द्वारा संचालित होता है। इन्हीं के आधार पर महाव्रतों का निर्विघ्न पालन सम्भव है। क्योंकि ये समितियाँ महाव्रतों तथा सम्पूर्ण आचार की परिपोषक प्रणालियां हैं। अहिंसा आदि महाव्रतों के रक्षार्थ गमनागमन, भाषण, आहार ग्रहण, वस्तुओं के उठाने-रखने, मलमूत्र-विसर्जन आदि क्रियाओं में प्रमादरहित सम्यक् प्रवृत्ति के द्वारा जीवों की रक्षा करना तथा सदा उनके रक्षण की भावना रखना समिति है। जीवों से भरे इस संसार में समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाला श्रमण हिंसा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे स्नेहगुण युक्त कमलपत्र पानी से। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा भी है - जीव मरे याजीये, अयत्नाचारी को हिंसा का दोष अवश्य लगता है। किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उसको बाह्य हिंसा मात्र से कर्मबन्ध नहीं होता।" वस्तुतः ये पाँचों समितियाँ चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्तिपरक होती हैं। इन समितियों में प्रवृत्ति से सर्वत्र एवं सर्वदा गुणों की प्राप्ति तथा हिंसा आदि पापों से निवृत्ति होती है। (11-15) इन्द्रिय निग्रह इन्द्र शब्द आत्मा का पर्यायवाची है। आत्मा के चिह्न अर्थात् आत्मा के सद्भाव की सिद्धि में कारणभूत अथवा जो जीव के अर्थ-(पदार्थ) ज्ञान में निमित्त बने उसे इन्द्रिय कहते हैं। प्रत्यक्ष में जो अपनेअपने विषय का स्वतंत्र आधिपत्य करती हैं, उन्हें भी इन्द्रिय कहते हैं।" इन्द्रियाँ पाँच हैं - चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श। ये पाँचों इन्द्रिय अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति कराके आत्मा को राग-द्वेष युक्त करती हैं। अतः इनको विषय-प्रवृत्ति की ओर से रोकना इन्द्रिय निग्रह है। ये पाँचो इन्द्रियाँ अपने नामों के अनुसार अपने नियत विषयों में प्रवृत्त करती हैं। स्पर्शेन्द्रिय स्पर्श द्वारा पदार्थको जानती हैं। रसनेन्द्रिय का विषय स्वाद, घ्राण का विषय गन्ध, चक्षु का विषय देखना तथा श्रोत्र का विषय सुनना है।" इन्द्रियों के इन विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया है - (1) काम रूप विषय। (2) भोगरूप विषय। रस और स्पर्श कामरूप विषय हैं तथा गन्ध, रूप और शब्द भोग रूप विषय हैं। इन्हीं इन्द्रियों की स्वछन्द प्रवृत्ति का अवरोध निग्रह कहलाता है। अर्थात् इन इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों की प्रवृत्ति से रोकना इन्द्रिय-निग्रह हैं। जैसे उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों के लगाम के द्वारा निग्रह किया जाता है, वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना (तप, ज्ञान और विनय) के द्वारा इन्द्रिय रूपी अश्वों का विषय रूपी उन्मार्ग से निग्रह किया जाता है। जो श्रमण जल से भिन्न कमल के सदृश इन्द्रिय-विषयों की प्रवृत्ति में लिप्त नहीं होता वह संसार के दुःखों से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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