Book Title: Digambar Granth Mulachar me Pratipadit Shramanachar
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
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________________ || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी 269 एकाकी विहार की घोर निन्दा भी की गयी है। इसमें मुख्य दृष्टि यही रही है कि एकाकी विहार में संयम की विराधना सतत बनी रहती है। जबकि ससंघ अथवा दो से अधिक श्रमणों के साथ विहार करने में ऐसी सम्भावना नहीं रहती। वस्तुतः संयम पालन में परस्पर के आदर्शों और प्रेरणाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इससे श्रमण अनेक दोषों से स्वाभाविक रूप में बचा रहता है। इसी दृष्टि से एकाकी विहार का निषेध किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमण का पर्याय यूं तो आत्म-कल्याण के लिए ग्रहण किया जाता है, परन्तु श्रमण के पर्याय में जाते ही उसके स्वार्थ तिरोहित हो जाते हैं और वह अपनी सारी वैयक्तिकता को विश्राम दे देता है, तब जागती है उसकी निर्वैयक्तिकता। यही वह तथ्य है, जो उसे अन्य सब स्थितियों से उठाकर सम्पूर्ण विश्व के कल्याण में प्रवृत्त करता है। उसकी एक-एक क्रिया उस समय अति महत्त्वपूर्ण हो जाती है और वह जगत् का उपकर्ता हो जाता है। वस्तुतः मनुष्य की श्रेष्ठता दीर्घ आयुष्य के कारण नहीं, अपितु उसे प्राप्त हुई मानवता के कारण है और वह मानवता जीवन की शुद्धि पर अवलम्बित है। चित्त की निर्मलता, कर्मों की परिशुद्धि, सद्गुणों की पूर्णता, सदैव सजगता, विवेक की सूक्ष्मता आदि आत्मोत्कर्ष की ओर बढ़ने के साधन हैं और इन्ही से श्रेष्ठ मानवता प्राप्त होती है। धर्म और उसके आचार का वह स्वरूप श्रेष्ठ है, जो मानवीय दृष्टिकोण को सबसे ज्यादा अहमियत देता है और जिसमें प्रत्येक मानव के लिये उसकी खोज की जाती है। 'धर्म' को विश्व-धर्म के रूप में अभिषिक्त करने के लिए जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति नैतिकता एवं संयमी जीवन को प्रधानता दे। जैन आचार में वे सब विशिष्टताएँ हैं जिन्हें विश्व का प्रत्येक व्यक्ति अपना सकता है तथा उससे वह इस जीवन के परम लक्ष्य को पा सकता है। वर्तमान में अनेक अनुकूलताओं, विषमताओं के बीच अपने नैतिक, संयमी एवं आदर्श जीवन द्वारा राष्ट्र एवं समाज को मर्यादित तथा नैतिक बनाने में साधुसंस्था (श्रमणसंघ) महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। ये समाज से सिर्फ आहार मात्र लेकर समाज के नैतिक आदर्शों को जीवित रखते हैं। यदि हम परस्पर प्रेम, स्नेह और सद्भावना के प्रतीक-रूप समाज की कल्पना करते हैं, हमारे बच्चों और भावी पीढ़ी में संस्कार चाहते हैं तो इन उच्चादर्शों के पालन करने वाले साधुओं के आदर्श और महत्त्व को स्वीकार करना ही होगा। -अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org