Book Title: Digambar Granth Mulachar me Pratipadit Shramanachar Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 260 दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार में प्रतिपादित श्रमणाचार प्रो. (डॉ.) फूलचन्द जैन प्रस्तुत आलेख में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निग्रह, षडावश्यक, केशलोच, आचेलक्य आदि अट्ठाईस मूल गुणों का दिगम्बराचार्य वट्टकेर के ग्रन्थ मूलाचार के आधार पर सारगर्भित निरूपण किया गया है तथा द्वादश तप, बाईस परीषह आदि उत्तरगणों का उल्लेख करते आहार-विहार का भी निरूपण किया गया है। इस आलेख को पढ़कर विदित होता है कि श्वेताम्बर श्रमणाचार से दिगम्बर श्रमणचार में कतिपय बिन्दुओं को छोड़कर प्रायः साम्य है। -सम्पादक) श्रमणधारा भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रवहमान है। पुरातात्त्विक, भाषावैज्ञानिक एवं साहित्यिक अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान अब यह स्वीकृत करने लगे हैं कि आर्यों के आगमन के पूर्व भारत में जो संस्कृति थी, वह श्रमण या आर्हत-संस्कृति होनी चाहिए। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैन धर्म के आदिदेव तीर्थंकर वृषभ या ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई। श्रमण संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमा-मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी इन विशेषताओं के कारण ही अनेक संस्कृतियों के सम्मिश्रण के बाद भी इस संस्कृति ने अपना पृथक् अस्तित्व अक्षुण्ण रखा। जैन धर्म के अन्य नामों में आर्हत तथा श्रमणधर्म प्रमुख रूप में प्रचलित है। इसके अनुसार श्रमण की मुख्य विशेषताएँ हैं- (1) उपशान्त रहना, (2) चित्तवृत्ति की चंचलता, संकल्प-विकल्प और इष्टानिष्ट भावनाओं से विरत रहकर, समभाव पूर्वक स्व-पर कल्याण करना। इन विशेषताओं से युक्त श्रमणों द्वारा प्रतिपादित, प्रतिष्ठापित और आचरित संस्कृति को श्रमण-संस्कृति कहा जाता है। यह पुरुषार्थमूलक है। इसकी चिन्तन धारा मूलतः आध्यात्मिक है। अध्यात्म के धरातल पर जीवन का चरम विकास श्रमण-संस्कृति का अन्तिम लक्ष्य है। जीवन का लक्ष्य सच्चे सुख की प्राप्ति है। यह सुख स्वातंत्र्य में ही सम्भव है। कर्मबन्धन युक्त संसारी जीव इसकी पहचान नहीं कर पाता। वह इन्द्रियजन्य सुखों को वास्तविक सुख मान लेता है। श्रमण संस्कृति व्यक्ति को इस भेद-विज्ञान का दर्शन कराकर उसे निःश्रेयस् के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त करती है। निःश्रेयस की प्राप्ति रत्नत्रयात्मक मार्ग पर चलकर सम्भव है। सम्यक्-दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अपनी समग्रता में इस रत्नत्रय मार्ग का निर्माण करते हैं। प्राचीन काल से लेकर श्रमणधारा के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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