Book Title: Digambar Granth Mulachar me Pratipadit Shramanachar
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 9
________________ | 268 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 ॥ उत्तरगुण प्राप्त करने के लिए जो मूलगुणों का त्याग कर देते हैं वे अपने हाथ की अंगुलियों की रक्षा के लिए अपना मस्तक काट देते हैं। अतः इन समस्त मूलगुणों का पूर्ण प्रयत्न के साथ सर्वत्र एवं सर्वदा पालन करना अभीष्ट है। जब इन मूलगुणों के पालन में शरीर अशक्त हो जाए अर्थात् जब जंघाबल (पैरों से चलने-फिरने और खड़े होने आदि की शक्ति) क्षीण हो जाए, अंजुलिपुट में आये हुए आहार को स्वयं मुख तक न ले जा सके, आँखें कमजोर हो जाए, तब श्रमण को भक्तप्रत्याख्यान (अनुक्रम से आहार त्याग करना तथा कषाय को कृश करते हुए समाधिमरण को प्राप्त होना) धारण कर लेना चाहिए, किन्तु ग्रहण किए हुए व्रतों में शिथिलता कदापि नहीं लानी चाहिए।" उत्तरगुण श्रमण के जिन अट्ठाईस मूलगुणों का विवेचन ऊपर किया गया है उनके उत्तरवर्ती पालन योग्य बारह तप, बाईस परीषह, बारह भावनाएँ, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और बल - ये पाँच आचार, उत्तम-क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य - ये दस धर्म तथा योगादि अनेक गुण हैं, जिन्हे उत्तरगुण कहते हैं। इनके माध्यम से श्रमण आत्मध्यान और तपश्चरण करके आध्यात्मिक विकास की शक्ति प्राप्त करता है तथा गुणस्थान प्रणाली में कर्मक्षय करता हुआ निर्वाण पद को प्राप्त करता है। आहार, विहार और व्यवहार - एक ओर जहाँ मूलगुण एवं उत्तरगुण सम्पूर्ण श्रामण्य की कसौटी बनकर उनकी संयम-यात्रा के लक्ष्य को प्राप्त कराने में अपना महत्त्वपूर्ण योग करते हैं, वहीं आहार, विहार और व्यवहार ये चर्याएँ उनके बाह्य जीवन, सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं अन्यान्य उन सभी कार्यों को विशुद्धता एवं समग्रता प्रदान करती हैं जिनका सीधा सम्बन्ध आत्मोत्कर्ष में सहयोग तथा सच्चे श्रामण्य की पहचान से है। देश, काल, श्रम, क्षम (सहन शक्ति) और उपधि (शरीरादि रूप परिग्रह) को अच्छी तरह जानकर श्रमण आहार एवं विहार में प्रवृत्त होता है। यद्यपि इसमें भी उसे अल्प-कर्मबंध होता है। किन्तु इतना अवश्य है कि श्रमण चाहे बालक हो अथवा वृद्ध अथवा तपस्या या मार्ग (पैदल आवागमन) के श्रम से खिन्न (थका हुआ), अथवा रोगादि से पीड़ित, वह अपने योग्य उस प्रकार की चर्या का आचरण कर सकता है, जिसमें मूल संयम' का घात (हानि) न हो।" इसीलिये इस लोक से निरपेक्ष, परलोक की आकांक्षा एवं आन्तरिक कषाय से रहित होकर 'युक्त-आहार-विहार' होना चाहिए।" क्योंकि श्रमण का चारित्र, तपश्चरण एवं संयम आदि का अच्छी तरह से पालन उसकी आहार-चर्या की विशुद्धता पर निर्भर है। इसी तरह समितिपूर्वक विशुद्ध विहारचर्या द्वारा भी वह श्रमण रत्नत्रय प्राप्ति का अभ्यास, शास्त्रकौशल एवं समाधिमरण के योग्य क्षेत्र तथा जन-जन के कल्याण की भावना रूप लक्ष्य को सहज ही प्राप्त कर लेता है तथा आहार-विहार एवं बाह्य जीवन के विविध व्यवहार-कार्यों या क्रियाओं में विवेक रखकर स्व-पर कल्याण में सदा प्रवृत्त बना रहता है। विहार-चर्या के अन्तर्गत जहाँ श्रमणों के लिए अनियत विहार की विवक्षा की गयी है, वहीं उनके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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