Book Title: Dhyan ka Shastriya Adhyayan Author(s): N L Jain Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 5
________________ ध्यान का शास्त्रीय निरूपण ११७ कार्य सारणी २ : ध्यान के उपमान उपमान संदर्भ १. कोड़ा इन्द्रिय कषाय घोड़ों पर नियन्त्रण भगवती आराधना २. शक्ति इन्द्रिय-बाणों का वारण गाथा ८४१-४३ ३. अग्नि जीव-लौह शुद्ध होता है, कर्म-धृत जलता है, पाप-वन नष्ट गाथा १३९२, ९७ होता है, कषाय शीत शांत होता है गाथा १८८६-९६ ४. बज्र पाप वृक्ष को काटता है समयसार : २३३ ५. कवच कषाय-योद्धा से रक्षा करता है (iii) मानार्णव : १/२३, ६-७. आयुध, खङ्ग कषाय योद्धा/मोह शत्रु को नष्ट करता है १३/३, ५, ६/२८। ८. सूर्य रागादि अन्धकार को दूर करता है (iv) आत्मप्रबोध : ३९, ४९ ९. जहाज संसार-सागर को पार करता है १०. अमृत मोह निद्रा नाश, समत्व लक्ष्मी प्राप्ति ११. यष्टि कषाय-शत्रु से रक्षा १२. बल कषाय सेना को जीतता है १३. छाया कषाय धूप का शमन १४. सरोवर कषाय-दाह का शमन १५. गर्भगृह कषाय-वायु का अवरोध १६. औषधि कषाय-रोग शमन १७. दुग्धपान कषाय-रोग नाश १८. अन्न विषय भूख का शमन १९. नौका अविद्या नदी को पार करना २०. शीतल जलधारा आत्मशांति लाता है। ध्यान का विशिष्ट विवरण ध्यान की परिभाषा के साथ ही, अनेक ग्रन्थों में उसका अनेक शीर्षकों के अन्तर्गत विस्तृत विवरण पाया जाता है । ध्यान का अधिकारी कौन है (ध्याता) ? ध्यान का ध्येय (आलम्बन, लक्ष्य) क्या है ? ध्यान के प्रकार (भेद) और प्रक्रिया क्या है ? ध्यान का फल क्या है ? ध्यान काल क्या है ? इन प्रश्नों का उत्तर ही ध्याता, ध्यान, ध्येय, ध्यानफल एवं काल शीर्षकों के अन्तर्गत दिया जाता है। कहीं-कहीं इन शीर्षकों की संख्या आठ तक दी गई है। हम अपना निरूपण पाँच शीर्षकों में करेंगे। (अ) ध्यान का अधिकारी, ध्याता : (१) प्रवृत्तियों का आधार जैन शास्त्रों में ध्याता संबंधी चर्चा मनोवृत्ति, संहनन एवं गुणस्थानों के आधार पर की गई है । प्राचीन शास्त्रीय मान्यता के अनुसार, ध्यान वही कर सकता है जो मुमुक्षु हो, संयमी हो, जिसके शरीर के अस्थिबंध ( संहनन) उत्तम हों, वासना से निलिप्त, जितेन्द्रिय, धीर और मनोवशो हो । संक्षेप में, जो शुभ प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख है, वह ध्यान कर सकता है। ऐसा माना जाता है कि आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से चौथे से चौदहवें चरण का व्यक्ति ध्यान का अधिकारी है । यह भी सामान्य धारणा है कि ऐसा विकास साधुचर्या से ही संभव है । अतः सामान्यतः साधुमार्गी ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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