Book Title: Dhyan ka Shastriya Adhyayan
Author(s): N L Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 10
________________ १२२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्रो साधुवाद ग्रन्थ . [खण्ड (स) ध्यान की प्रक्रिया ध्यान की विविध प्रक्रियाओं के विषय में प्राचीन ग्रन्थों में स्फुट उल्लेख हो मिलते हैं। सम्भवतः उनका समन्वयात्मक निरूपण ज्ञानार्णव में हुआ है। इसमें बताया गया है कि ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान, आसन, प्राणायाम तथा ध्यानविधि का ज्ञान आवश्यक है। उपयुक्त स्थान : सामान्यतः यह माना जाता है कि सिद्ध योगी को साधना के लिये कोई भी स्थान उपयुक्त है । पर सामान्य अभ्यासी के लिये पवित्र और एकान्त स्थान आवश्यक है। यह सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, नदी-समुद्र तट, नदो-संगम, पर्वत, गुफा, वृक्ष कोटर, भू-गर्भ, मन्दिर, शून्य-गृह, केलावृक्षों से निर्मित गृह, उपवन-वेदिका, चैत्यवृक्ष के समान कोलाहल-विहीन एवं मनोमोदी कोई भी स्थान हो सकता है। समुचित स्थान पर, लकड़ी के पटिये पर, शिलापट पर, बालका पर्वत पर विशिष्ट आसन ग्रहण कर ध्यान किया जाता है। ध्यान के लिए आसन : ध्यान के लिए आसन का चुनाव भी महत्वपूर्ण है। स्थिरसुखी आसन की परिभाषा के बावजूद भी जिन आसनों की शास्त्रों में चर्चा है, उनमें अभ्यास के बाद ही सुख मिलता है। आगम तथा अन्य ग्रन्थों में प्रायः १९ आसनों का उल्लेख है : उकड या गोदोहासन, बज्रासन, वीरासन, पल्यंकासन, अर्धपल्यंकासन, कायोत्सर्गासन, मकरासन, हस्तिशुंडासन, दंडासन, संकोच-शरीरासन, शवासन, गवासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, आम्रकुब्जासन, क्रौंचासन, हंसासन, गजासन । यद्यपि जैन परम्परा में ध्यान हेतु विशेष आसन का नियम नहीं है, फिर भी, ज्ञानार्णव में बताया गया है कि कलिकाल में इनमें से केवल दो आसन हो महत्वपूर्ण हैं : पयंकासन या पद्मासन एवं कायोत्सर्गासन या खङ्गासन । इनमें अन्य आसनों को तुलना में शक्ति कम लगती है। ये सरल होते हैं और मन को स्थिर करने में सहायक होते हैं। ध्यान के लिये आसन लगाते समय मुख पूर्व या उत्तर की ओर होना चाहिये । दृष्टि नासाग्रमुखी होना चाहिये । शरीर के अन्य अंग निश्चल एव स्थिर रहने चाहिये । शुभचन्द्र ने बताया है कि आसन के समुचित अभ्यास न होने से (i) शरीर स्थिर नहीं रह पाता (ii) शरीर की अस्थिरता से मन स्थिर नहीं किया जा सकता (iii) शरीर और मन की अस्थिरता से समाधिदशा सहज नहीं हो पाती एव (iv) समुचित परीषह सहता विकसित नहीं हो पाती। इसके विपर्यास में, पद्मासन से स्थिरता, प्रसन्नता, शान्ति एवं स्पंदनरहितता आती है। इससे अन्तःशक्ति और विवेक जागृत होते हैं । आज की शारीरिक शिक्षा में जो अनेक प्रकार के व्यायाम कराये जाते हैं, वे केवल शरीर को शुद्ध कर पुष्ट एवं बलशाली बनाते हैं। पर आसन न केवल शरीर को, अपितु मन को भी बली बनाते हैं । अतः आसनों का प्रभाव मनोदैहिक एवं काय-मानसिक-दोनों प्रकार का होता है । ये ही ध्यानमुद्रा को प्रेरित करते है । ध्यान के लिए प्राणायाम : मन बड़ा चंचल है। उसमें हाथी के समान बल, दैत्य के समान पोड़ाकारी वृत्ति, बन्दर के समान चचलता और सर्प के समान दंशन-वृत्ति होती है। हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ उसकी प्रमुख सहायक हैं। हेमचन्द्र के अनुसार, यह विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और तुलीन नामक चार वृत्तियों को धारण करता है । यह व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण का राजा है। उसे समुचित रूप से नियन्त्रित करने के लिए आसन के साथ प्राणायाम-अभ्यास भी आवश्यक है। यह सामान्यतः श्वासोच्छ्वास के अन्तर्गमन, बहिर्गमन एवं अन्तःस्थापन के नियन्त्रण की प्रक्रिया है। प्रारम्भ में शुभचन्द्र ने अन्तःकरण की शुद्धि तथा ध्यान-ज्ञान की सफलता के लिये इसे अनुशंसित किया है । पर हेमचन्द्र को इसमें श्रम एवं चित्त-संक्लेशभाव प्रतीत हुआ, अतः ध्यान-साधना में इसे विरोधो कहा है । बाद में, शुभचन्द्र ने भी प्रत्याहार की अनुशसा करते हुए ध्यान के लिये इसकी हीनता बताई है। उनका यह मत तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि दीर्घ या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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