Book Title: Dhyan ka Shastriya Adhyayan
Author(s): N L Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 1
________________ ध्यान का शास्त्रीय निरूपण एन० एल० जैन जैन केन्द्र, रीवा, म०प्र० प्रस्तावना तुलनात्मक अध्ययन के वैज्ञानिक युग में समान विचारों, धाराओं एवं पद्धतियों की पारभाषिक शब्दावली की विविधता जिज्ञासुओं के अध्ययन के समय एक व्यवधान के रूप में सामने आती है। सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में यह पाया गया कि ज्ञान के विकास की समग्र प्रगति की दर इससे पर्याप्त रूप में प्रभावित होती है। वैज्ञानिकों ने तो पारिभाषिक शब्दावली की एकरूपता का विकास कर अपनी प्रगति में चार चाँद लगाये हैं, पर दार्शनिकों एवं पूर्वी विद्वानों की बात निराली है । उन्हें विविध रूपता में ही एकरूता के दर्शन होते हैं चाहे वह सामान्य जन के लिये कितनी ही अबोधगम्य क्यों न प्रतीत होती हों। यही कारण है कि जहाँ वैज्ञानिक जगत विश्व मंच पर विकसित हो रहा है, वही दार्शनिक मंच यथास्थिति में पड़ा है। इसीलिये भारतीय धर्म और दर्शन ऐतिहासिक अधिक होते जा रहे हैं। यह तथ्य ध्यान के निरूपण से भी भलीभांति प्रकट होता है। यह प्रसन्नता की बात है कि बीसवीं सदी में इस दिशा में विचारात्मक एवं प्रक्रियात्मक विकास के कुछ लक्षण दिखाई दे रहे हैं। यह सुज्ञात है कि हिन्दू, जैन और बौद्ध विचार धारा में आध्यात्मिक विकास, चरम सुख की प्राप्ति या निर्वाण के लिये ध्यान एक आवश्यक प्रक्रिया है। यह व्यक्ति की वहिर्मुखी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाता है । उसे उदासीन दृष्टा बनाकर सुखानुभूति का मार्ग प्रशस्त करना है। पर प्रारम्भिक जैन शास्त्रों में इसे लोक विपश्यना (शरीर दर्शन या शोधन) या संप्रेक्षा के नाम से बताया गया है। बौद्धों ने इसे विपश्यना या समाधि कहा है। योगशास्त्र इसे ध्यान योग ता है। यद्यपि सामान्य जन को योग, ध्यान एवं समाधि जैसे शब्द समानार्थक से लगते हैं, पर शास्त्रों में इनके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। सिद्ध सेन गणि ने योग के छह पर्यायवाची बताये हैं जिनमें ध्यान और समाधि भी समाहित है। सामान्यतः ध्यान योग का एक अंग है और उससे समाधि या स्थितप्रज्ञता आती है। फलतः योग ध्यान और समाधि को समाहित करता है। योग शब्द का अर्थ योग शब्द का पारिभाषिक अर्थ प्रत्येक विचार धारा में भिन्न है। जैन इसे मन, वचन व शरीर की क्रियाओं, प्रवृत्तियों के या आस्रव के रूप में बताते हैं। इसके ठीक विपरीत, योगशास्त्र इसे चित्त की वृत्तियों के निरोध या केन्द्रण के रूप में व्यक्त करते हैं। बौद्ध मन, वचन, काय के स-स्थित होने से प्राप्त बोध को योग कहते हैं। यही नहीं. जैनों के प्राचीन ग्रन्थों में भी इस शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। शिवायं के टीकाकार ने इसका अर्थ कायक्लेश, तप और ध्यान किया है। सूत्र कृतांग,समवायांग, दशवकालिक, उत्तराध्ययन व आवश्यक सूत्र में भी अनेक अर्थों में इसका उपयोग है। अर्थापत्ति से ही हम इसका सही अर्थ मान सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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