Book Title: Dhyan Swarup Vishleshan Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 5
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. .३०४ चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक साधक धर्म ध्यान का ही अधिकारी माना गया है । छद्मस्थ द्वारा किया जाने वाला इस प्रकार का धर्म ध्यान सविकल्प होते हुए भी निवात स्थान में रखे हुए दीपक की लौ के समान निष्कम्प, निश्चल एवं उसी वस्तु के चिन्तन की परिधि में अडोल होता है। इस धर्म ध्यान के ४ भेद बताये गये हैं । यथा :आप्तवचनं प्रवचनमाज्ञा विचयस्तदर्थ निर्णयनम् । आश्रव विकथः गौरव, परीषहाद्यैरपायस्तु ॥१॥ अशुभ शुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाक: विचयः स्यात् । प्रव्य क्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थान विचयस्तु ॥२॥ -स्थानांग टीका, स्थान ४, उद्देशा १ अर्थात्-(१) आणा विजए-प्राज्ञा का विचार, (२) अवाय विजएदोष का विचार, (३) विवाग विजए-कर्म के शुभाशुभ फल का विचार और (४) संठाण विजए-लोक संस्थान का विचार, ये धर्म ध्यान के शास्त्रीय चार प्रकार हैं। ध्यान का प्रारम्भ : ध्यान का प्रारम्भ भावनाओं से होता है। भावनायें चार प्रकार की हैं। (१) एकाक्यनुप्रेक्षा-अर्थात् एकाकी भावना। इस एकाकी भावना में एकत्व की भावना का इस प्रकार चिन्तन लिया जाता है : एकोऽहं न च मे कश्चित, नाहमण्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं नासौ भावीति मो मम् ।। १ ।। अर्थात् मैं एक हूँ। कोई अन्य ऐसा नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकू और न मैं स्वयं भी किसी का हूँ। मुझे संसार में ऐसा कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। जितना कि मैं कहा जा सकूँ अथवा जिसको मैं अपना कह सकूँ। मैं स्वयं ही अपने सुख-दुःख का निर्माता हूँ। एकत्वानुप्रेक्षा अर्थात् एकाकी भावना में इस प्रकार आत्मा के एकाकीपन और असहाय रूप का विचार (चिन्तन) किया जाता है। (२) दूसरी भावना है-अनित्यानुप्रेक्षा-अर्थात् शरीर, संपदा आदि की अनित्यता की भावना। इस दूसरी भावना में शरीर और सम्पत्ति आदि की क्षणभंगुरता एवं अनित्यता पर चिन्तन करना चाहिये कि शरीर के साथ रोग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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