Book Title: Dhyan Swarup Vishleshan
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 7
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. मन की चंचलता कम करने के पश्चात् आगे की दूसरी प्रक्रिया यह है कि एकत्व भाव, संवर, निर्जरा, धर्म एवं बोधि भाव से मन को परिष्कृत करते हुए यह समझाया जाय कि प्रो मन ! तेरी श्रद्धा के योग्य इस संसार में केवल एक आत्मदेव के अतिरिक्त और कोई नहीं है। प्रात्मा और तदनुकुलवृत्ति ही उपादेय एवं हितकर है। मन को यह समझाकर उसे पर-द्रव्य से मोड़ कर आत्मनिष्ठ बनाया जाता है। ज्ञान-बल से सांसारिक (इहलौकिक) पदार्थों को आत्मा से भिन्न पर एवं नश्वर समझ लेने से उनकी अोर का सारा आकर्षण समाप्त हो जाता है । यह ध्यान साधना की पहली कक्षा अथवा भूमिका है। ध्यान साधना की दूसरी भूमिका में चिन्तन किया जाता है—"कि मे कडं किं च मे किच्च सेसं ?" अर्थात् मैंने क्या-क्या कर लिया है और मुझे क्याक्या करना अवशिष्ट है आदि । तीसरी भूमिका में आत्म-स्वरूप का अनुप्रेक्षण कर स्वरूप रमणता प्राप्त हो जाती है और चतुर्थ भूमिका में राग-रोष को क्षय कर निर्विकल्प समाधि प्राप्त की जाती है। ध्यान से लाभ: ज्ञान की अपरिपक्वावस्था में जिस प्रकार एक बालक रंग-बिरंगे खिलौनों को देखते ही कुतूहलवश हठात् उनकी ओर आकर्षित हो, उन्हें प्राप्त करने के लिये मचल पढ़ता है, किन्तु कालान्तर में वही प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हो परिपक्व समझ हो जाने के कारण उन खिलौनों की ओर अाँख उठाकर भी नहीं देखता। ठीक उसी प्रकार ज्ञानान्धकार से पाच्छन्न मन सदा प्रतिपल विषय-कषायों की ओर आकर्षित होता रहता है, परन्तु जब मन को ध्यान-साधना द्वारा बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बना दिया जाता है, तो वही ज्ञान से परिष्कृत मन विषय-कषायों से विमुख हो अध्यात्म की ओर उमड़ पड़ता है और साधक ध्यान की निरन्तर साधना से अन्ततोगत्वा समस्त ग्रन्थियों का भेदन कर शाश्वत सुखमय अजरामर मोक्ष पद को प्राप्त करता है । जैन परम्परा की विशेषता : जैन, वैदिक और बौद्ध आदि सभी परम्पराओं में ध्यान का वर्णन मिलता है। वैदिक परम्परा में पवनजय को मनोजय का प्रमुख साधन माना गया है। उन्होंने यम-नियम आदि को ध्यान का साधन मानकर भी आसन प्राणायाम की तरह इन्हें मुख्यता प्रदान नहीं की है। योगाचार्य पतंजलि ने भी समाधि पात्र में मैत्री, करुणा मुदिता और उपेक्षा भाव से चित्त शुद्धि करने पर मनःस्थैर्य का प्रतिपादन किया है । यथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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