Book Title: Dhyan Swarup Vishleshan
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 4
________________ · प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक साधक धर्म ध्यान का ही अधिकारी माना गया है । छद्मस्थ द्वारा किया जाने वाला इस प्रकार का धर्म ध्यान सविकल्प होते हुए भी निवात स्थान में रखे हुए दीपक की लौ के समान निष्कम्प, निश्चल एवं उसी वस्तु के चिन्तन की परिधि में डोल होता है । इस धर्म ध्यान के ४ भेद बताये गये हैं । यथा : आप्तवचनं ग्राश्रव प्रवचनमाज्ञा विचयस्तदर्थ निर्णयनम् । विकथ: गौरव, परीषाद्यैरपायस्तु ॥ १ ॥ अशुभ शुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाकः विचयः स्यात् । प्रव्य क्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थान विचयस्तु 11 R 11 - स्थानांग टीका, स्थान ४, उद्द ेशा १ अर्थात् - ( १ ) प्राणा विजए - श्राज्ञा का विचार, (२) अवाय विजए - दोष का विचार, (३) विवाग विजए - कर्म के शुभाशुभ फल का विचार और (४) संठारण विजए - लोक संस्थान का विचार, ये धर्मं ध्यान के शास्त्रीय चार प्रकार हैं । ध्यान का प्रारम्भ : ३०६ ध्यान का प्रारम्भ भावनाओं से होता है । भावनायें चार प्रकार की हैं । इस एकाकी भावना में एकत् ( १ ) एकाक्यनुप्रेक्षा - अर्थात् एकाकी भावना । की भावना का इस प्रकार चिन्तन लिया जाता है : एकोऽहं न च मे कश्चित्, नाहमण्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं नासौ भावीति मो मम् ॥ १ ॥ अर्थात् मैं एक हूँ । कोई अन्य ऐसा नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकूँ और न मैं स्वयं भी किसी का हूँ । मुझे संसार में ऐसा कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । जितना कि मैं कहा जा सकूँ अथवा जिसको मैं अपना कह सकूं । मैं स्वयं ही अपने सुख-दुःख का निर्माता हूँ । एकत्वानुप्रेक्षा श्रर्थात् एकाकी भावना में इस प्रकार आत्मा के एकाकीपन और असहाय रूप का विचार ( चिन्तन ) किया जाता है । Jain Educationa International (२) दूसरी भावना है - प्रनित्यानुप्रेक्षा- अर्थात् शरीर, संपदा आदि की अनित्यता की भावना । इस दूसरी भावना में शरीर और सम्पत्ति आदि की क्षणभंगुरता एवं अनित्यता पर चिन्तन करना चाहिये कि शरीर के साथ रोग For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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