Book Title: Dhavalsiddhant Granthraj Author(s): Ratanchand Mukhtar Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 6
________________ श्री धवलसिद्धान्त ग्रंथराज १०५ (१) श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने वारस अनुवेक्खा के अन्तर्गत संसार अनुप्रेक्षा की दूसरी गाथा में कहा है कि “इस पुद्गल परिवर्तन रूप संसार में समस्त पुद्गल इस जीव ने एक एक करके पुनः पुनः अनन्त बार भोग कर छोडे हैं।" इस गाथा के आधार पर समस्त विद्वानों की यही धारणा, बनी हुई है कि प्रत्येक जीव ने समस्त पुद्गल भोग लिया है। ऐसा कोई भी पुद्गल नहीं है जिसको न भोगा हो, किन्तु श्री वीरसेन आचार्य कहते हैं कि प्रत्येक जीव एक समय में अभव्यों से अनन्त गुणा तथा सिद्धों के अनन्तवें भाग पुद्गल को भोगता है। इस पुद्गल राशि को यदि सर्व जीव राशि तथा अतीत काल के समयों की संख्या से गुणा कर दिया जाय तो सर्व जीवों द्वार। अतीत काल में भोगे गये पुद्गल का प्रमाण आ जाता है । यह पुद्गल का प्रमाण समस्त पुद्गल राशि के अनन्तवें भाग है। जब सर्व जीव द्वारा भी समस्त पुद्गल नहीं भोगा गया। तो एक जीव द्वारा समस्त पुद्गल का अनन्त बार भोगा जाना असम्भव है। अतः श्री कुन्दकुन्द आचार्य की गाथा में जो 'सर्व' पद आया है उस सर्व शब्द की प्रवृत्ति सर्व के एक भाग में की गई है जैसे 'ग्राम जल गया', ‘पद जल गया' इत्यादिक वाक्यों में उक्त शब्द ग्राम और पदों के एक देश में प्रवृत्त हुए देखे जाते हैं अतः एक देश के लिये भी सर्व शब्द का प्रयोग होता है । सर्व से समस्त का ग्रहण न होकर एक देश का भी ग्रहण होता है ।। “अदीद काले वि सव्व जीवेहि सव्व पोग्लाणमणं तिमभागो सव्व जीव रासीदों अनन्त गुणों, सव्व जीवराशि उवरिमवग्गादों अनन्तगुण हीणों पोग्गलपुंजोमुत्तु जिझ दो। कुदो ! अमवसिद्धिएहि अनन्तगुणेण सिद्धाणमणंतिम भागेण गुणिदादी कालमत्त सव्व जीव रासि समाण मुत्तुझिद पोग्गल परिमाणोवसंमा--- सव्वे वि पोग्गला खलु एगे मुत्तज्झिदा दु जीवेण । असई अणंत खुत्तो योग्ग परिपट्ट संसारे ॥ एदिए सुत्तगाहए सह विरोहो किण्ण होदि ति भणिदे ण होदि, सव्वेदेसम्हि गाहथ्य-सव्व-सद्दष्पवुत्तीदो। ण च सव्वम्हि पयट्टमाणस्स सदस्स एगदेसपउत्ती असिद्धा, गामो दद्धो, पदोदद्धो, इच्चादिसु गामपदाणमेगदेसपयट्ट सदुवलंभादो।" [धवल, पु. ४, पृ. ३२६] सामान्य ग्रहण को दर्शन कहते हैं। यहां पर आये हुए 'सामान्य' शब्द का अर्थ धवल में 'आत्म पदार्थ' किया गया है । जब कि समस्त विद्वान ‘सामान्य' शब्द से वस्तु का सामान्य लेते है । चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन तथा अवधि दर्शन के विषय का प्रतिपादन करने वाली गाथाओं में इन दर्शनों का विषय यद्यपि बाह्य पदार्थ बतलाया गया है किन्तु श्री वीरसेन आचार्य ने इन गाथाओं का पारमार्थिक अर्थ करते हुए कहा है कि इन्द्रिय ज्ञान से पूर्व ही जो सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है और जो ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त रूप है वह दर्शन है यथार्थ में दर्शन की अन्तरंग में ही प्रवृत्ति होती है। किन्तु बालकजनों को ज्ञान कराने के लिए बहिरंग पदार्थों के आश्रय से दर्शन की प्ररुपणा की गई है यदि गाथा का सीधा अर्थ किया जाय और दर्शन का विषय बहिरंग पदार्थ का सामान्य अंश माना जावे तो अनेक दोषों का प्रसंग आ जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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