Book Title: Dhavalsiddhant Granthraj
Author(s): Ratanchand Mukhtar
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 12
________________ श्री धवलसिद्धान्त ग्रंथराज १११ 'अभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थों की उपलब्धि नहीं बन सकती । अर्थात् प्रतिपक्ष के बिना पदार्थ का सद्भाव संभव नहीं है । ' अनेकान्त ' का सिद्धान्त श्री वीरसेन आचार्य का प्राण था उन्होंने एकान्त मान्यताओं का खंडन किया है और अनेकान्त को सिद्ध किया है। पुद्गल परमाणु को प्रायः सब पंडितगण निरवयव (अभागी) मानते हैं। श्री वीरसेन आचार्य ने धवल, पुस्तक १३, पृष्ठ २१ - २४ तथा धवल, पुस्तक १४, पृष्ट ५६-५७ परमाणु को निरवयव अर्थात अविभागी तथा सावयव अर्थात भाग सहित माना है । द्रव्यार्थिक नय से पुद्गल परमाणु निरवयव है, क्योंकि यदि परमाणु के अवयव होते है ऐसा माना जाय तो परमाणु को अवयवी होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं । क्योंकि अवयव के विभाग द्वारा अवयवों के संयोग का विनाश होने पर परमाणु का अभाव प्राप्त होता है । पर्यायार्थिक नय का अवलम्बन करने पर परमाणु के अवयव नहीं होते यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि यदि उसके उपरिम, अधस्तन, मध्यम और उपरिमोपरि भाग न 1 तो परमाणु का भी अभाव प्राप्त होता है । ये भाग कल्पित रूप होते हैं यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु में ऊर्ध्वभाग और मध्यम भाग तथा उपरिमोपरिम भाग कल्पना के बिना भी उपलब्ध होते हैं । तथा परमाणु के अवयव हैं । इसलिये उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो सब वस्तुओं के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । [ धवल, पु. १४, पृ. ५६-५७ ] अभव्यत्व जीव की व्यंजन पर्याय भले ही हो, परन्तु सभी व्यंजन पर्याय का अवश्य नाश होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इससे एकान्त वाद का प्रसंग आ जाता है। [धवल, पुस्तक ७, पृ. १७८] सब सहेतुकही हो ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि इससे भी एकान्त वाद का प्रसंग आता है [ धवल, पु. ७, पृ. ४६३] इस प्रकार का कथन प्रायः धवल की सभी पुस्तकों में पाया जाता है । श्री वीरसेन आचार्य की विशेषता यह रही कि जिस विषय का उनको परम्परागत उपदेश प्राप्त नहीं हुआ उस विषय में उन्होंने अपनी लेखनी नहीं उठाई किन्तु स्पष्ट रूप से अपनी अनभिज्ञता स्वीकार की है जैसे 66 णच अम्हे एंत्यं वोत्तु समत्था अलद्धोवदेसत्तादों " अर्थात हम यह कहने के लिये समर्थ नहीं है क्योंकि हमको वैसा उपदेश प्राप्त नहीं है । " माणुसखेत्तादो ण णव्वदे ।” मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते है यह ज्ञात नहीं है । इसमें श्री वीरसेन आचार्य की निरभिमानता प्रकट होती है । जहां पर उन्हें आचार्य परम्परागत उपदेश प्राप्त होता है वहाँ उन्होंने स्पष्ट लिख दिया है कि यह विषय आचार्य परम्परागत उपदेश से प्राप्त होता है । जैसे " कुदो वगम्मदे ? आइरिय परांपरगय उादो । ," Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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