Book Title: Dhavalsiddhant Granthraj Author(s): Ratanchand Mukhtar Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 5
________________ १०४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ जो भूत अर्थात् प्राणिमात्र से पूजे गये हैं, अथवा भूत-नामक व्यंतरजाति के देवों द्वारा पूजे गये हैं। जिन्होंने अपने केशपाश अर्थात् संयत सुन्दर बालों से बलि अर्थात् जरा आदि से उत्पन्न होने वाली शिथिलता को तिरस्कृत कर दिया है, जिन्होंने कामदेव के प्रसार को नष्ट कर दिया है। और जिन्होंने निर्मल ज्ञान के द्वारा ब्रह्मचर्य के प्रसार को बढ़ा दिया है ऐसे भूत-बलि आचार्य को प्रणाम करता हूँ। इस षट्खण्डागम पर अनेक आचार्यों ने टीका रची है। १. कुन्दकुन्द नगर के श्री पद्मनन्दि अपर नाम श्री कुन्दकुन्द आचार्य द्वारा रचित परिकर्म टीका । २. श्री शामकुंड आचार्य विरचित 'पद्धति' टीका, ३ श्री तुम्बुलूर आचार्य कृत 'चूडामणि' टीका, ४ श्री समन्तभद्र स्वामी कृत टीका, ५ श्री बप्पदेव गुरु कृत 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' टीका । ये पांचों टीका इस समय उपलब्ध नहीं हैं इनमें से कुछ का उल्लेख श्री वीरसेन आचार्य ने अपनी 'धवल' टीका में किया है। इस 'षट्खण्डागम' ग्रन्थ के प्रथम पांच खण्डों पर श्री. वीरसेन आचार्य ने ७२ हजार श्लोक प्रमाण धवल नामक टीका रची है। श्री वीरसेन आचार्य के विषय में श्री जिनसेन आचार्य ने निम्न प्रकार कहा है। 'श्री वीरसेन आचार्य साक्षात् केवली के समान समस्त विश्व के पारदर्शी थे। उनकी वाणी षट्खण्डागम में अस्खलित रूप से प्रवृत्त होती थी। उनकी सर्वार्थ गामिनी नैसर्गिक प्रज्ञा को देख कर सर्वज्ञ की सत्ता में किसी मनीषी को शंका नहीं रही थी। विद्वान लोग उनकी ज्ञान रूपी किरणों के प्रसार को देख कर उन्हें प्रज्ञा श्रमणों में श्रेष्ठ आचार्य और श्रुत केवली कहते थे। सिद्धान्त रूपी समुद्र के जल से उनकी बुद्धि शुद्ध हुई थी। जिससे वे तीव्र बुद्धि प्रत्येक बुद्धों से भी स्पर्धा करते थे। उन्होंने चिरन्तन काल की पुस्तकों की खूब पुष्टि की। और इस कार्य में वे अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक पाठियों से बढ़ गये थे। श्री वीरसेन आचार्य भट्टारक पद पर आरूढ़ थे। वे वादि-वृन्दारक थे तथा सिद्धान्तोपनिबन्ध कर्ता थे।" श्री वीरसेन आचार्य की धवल टीका ने आगम सूत्रों को चमका दिया, इसीलिए उनकी 'धवला' को भारती की भुवनव्यापिनी कहा है। धवला भारती तस्य कीर्ति च शुचि-निर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ॥५८॥ [ आदिपुराण-उत्थानिका] इस टीका के विस्तार व विषय के पूर्ण परिचय तथा पूर्वमान्यताओं व मतभेदों के संग्रह, आलोचन व मंथन द्वारा पूर्ववर्ती टीकाओं को पाठकों की दृष्टि से ओझल कर दिया अर्थात् इस धवल टीका के प्रभाव में सब प्राचीन टीकाओं का प्रचार रुक गया । __इस धवल टीका में कहीं कहीं पर श्री कुन्दकुन्द आदि आचार्यों की गाथाओं के शब्दों का सीधा अर्थ न करके अन्य अर्थ किया गया है। क्योंकि सीधा अर्थ करने से सिद्धान्त व युक्ति से विरोध आता था । जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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