Book Title: Dharmyuddha Ka Adarsh
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ धर्मयुद्ध का आदर्श बंगला देश मुक्ति के संदर्भ में अहिंसा और हिंसा की विवेचना बहुत पूर्व काल से होती आ रही है। अबतक जितने भी मनीषी - विचारक हुए हैं, सबों ने इस पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है। किन्तु फिर भी बहुत बार लोग गड़बड़ा जाते हैं कि वास्तव में अहिंसा और हिंसा का सही रूप क्या है? मोटे तौर पर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा के दो रूपों में विभाजित करके हिंसा की विवेचना की जाती है। किन्तु हिंसा के वास्तव में चार रूप है - ( 1 ) द्रव्य हिंसा- इसमें सिर्फ बाहर में हिंसा होती है, (2) भाव हिंसा - इसमें भावना मात्र से हिंसा होती है, (3) द्रव्य + भाव हिंसा- इसमें द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार की हिंसा होती है, यह हिंसा का प्रचण्ड रूप है। और (4) न द्रव्य + न भाव हिंसा- इसमें न अन्दर में हिंसा होती है, बाहर में। और यह हिंसा का शून्य भंग अर्थात् प्रकार है ! अतः यह चतुर्थ रूप वस्तुत: अहिंसा ही है। न जैन दर्शन में अहिंसा का बोलबाला है। इसमें अहिंसा सर्वोच्च शिखर के रूप में दीप्तिमान है। जैन साधना में इसका बड़ा विशद् महत्व है। जैन ध र्म-साधना का कण-कण अहिंसा से अनुप्राणित है। शास्त्र के शास्त्र इस पर लिखे गये हैं । " पुरुषार्थ सिद्धि उपाय" एक ऐसा ही ग्रन्थ है, जिसमें हिंसा और अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि की रचनाओं में भी हिंसा और अहिंसा की गम्भीर विवेचना उपलब्ध है। किन्तु विचारणीय बात यह है कि जब तक जीवन है, तब तक इसमें हिंसा तो रहती ही है। हिंसा का क्रम निरन्तर चलता ही रहता है । चलने-फिरने में हिंसा है, खाने-पीने में हिंसा है। धरती पर असंख्य कीटाणु फिरते हैं, जिन्हें माइक्रो- स्कोप से स्पष्ट देखा जा सकता है, कदम रखते ही उनका संहार हो जाता है। हवा में भी असंख्य सूक्ष्म कीटाणु हैं, जो शास्त्रोक्त वायुकायिक जीवों Jain Education International For Private & Personal Use Only धर्म - युद्ध का आदर्श 77 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 ... 14