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धर्मयुद्ध का आदर्श बंगला देश मुक्ति के संदर्भ में
अहिंसा और हिंसा की विवेचना बहुत पूर्व काल से होती आ रही है। अबतक जितने भी मनीषी - विचारक हुए हैं, सबों ने इस पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है। किन्तु फिर भी बहुत बार लोग गड़बड़ा जाते हैं कि वास्तव में अहिंसा और हिंसा का सही रूप क्या है? मोटे तौर पर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा के दो रूपों में विभाजित करके हिंसा की विवेचना की जाती है। किन्तु हिंसा के वास्तव में चार रूप है - ( 1 ) द्रव्य हिंसा- इसमें सिर्फ बाहर में हिंसा होती है, (2) भाव हिंसा - इसमें भावना मात्र से हिंसा होती है, (3) द्रव्य + भाव हिंसा- इसमें द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार की हिंसा होती है, यह हिंसा का प्रचण्ड रूप है। और (4) न द्रव्य + न भाव हिंसा- इसमें न अन्दर में हिंसा होती है, बाहर में। और यह हिंसा का शून्य भंग अर्थात् प्रकार है ! अतः यह चतुर्थ रूप वस्तुत: अहिंसा ही है।
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जैन दर्शन में अहिंसा का बोलबाला है। इसमें अहिंसा सर्वोच्च शिखर के रूप में दीप्तिमान है। जैन साधना में इसका बड़ा विशद् महत्व है। जैन ध र्म-साधना का कण-कण अहिंसा से अनुप्राणित है। शास्त्र के शास्त्र इस पर लिखे गये हैं । " पुरुषार्थ सिद्धि उपाय" एक ऐसा ही ग्रन्थ है, जिसमें हिंसा और अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि की रचनाओं में भी हिंसा और अहिंसा की गम्भीर विवेचना उपलब्ध है।
किन्तु विचारणीय बात यह है कि जब तक जीवन है, तब तक इसमें हिंसा तो रहती ही है। हिंसा का क्रम निरन्तर चलता ही रहता है । चलने-फिरने में हिंसा है, खाने-पीने में हिंसा है। धरती पर असंख्य कीटाणु फिरते हैं, जिन्हें माइक्रो- स्कोप से स्पष्ट देखा जा सकता है, कदम रखते ही उनका संहार हो जाता है। हवा में भी असंख्य सूक्ष्म कीटाणु हैं, जो शास्त्रोक्त वायुकायिक जीवों
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के अतिरिक्त हैं, शरीर से लगते हर झोके के साथ उनका सर्वनाश होता रहता है। हर साँस में प्राणी मर रहे हैं। व्यक्ति के अपने शरीर में भी मांस, मज्जा, रक्त, मलमूत्र आदि में भी प्रतिक्षण असंख्य प्राणी जनमते-मरते रहते हैं। प्रश्न है, इस स्थिति में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है? अहिंसा का पालन कैसे हो सकता है? जैन परम्परा इसका उत्तर द्रव्य और भाव के द्वारा देती है। यदि साधक जाग्रत है, उसके मन में अहिंसा का विवेक बोध है, हिंसा की वृत्ति या संकल्प नहीं है, तो वह बाहर में हिंसा होने पर भी अन्दर में अहिंसक ही है। यह भावशून्य द्रव्य हिंसा केवल बाह्य व्यवहार में कथनमात्र की हिंसा है, पापकर्म का बन्ध करने वाली हिंसा नहीं हैं इस प्रकार हिंसा की भावना से मुक्त मन:स्थिति में द्रव्य हिंसा होने पर भी अहिंसा धर्म का परिपालन- अक्षुण्ण है।
अहिंसा धर्म के परिपालन का एक दूसरा रूप और है। वह प्रवृत्ति में हिंसा और अहिंसा की मात्रा के आधार पर है। कल्पना कीजिए, कोई एक प्रवृत्ति है, जिसमें हिंसा की मात्रा कम है, किन्तु अहिंसा का भाग अधिक है, तो यह भी अहिंसा की साधना के क्षेत्र में आ जाता है। हिंसा और अहिंसा का केवल वर्तमान पक्ष ही नहीं, भविष्य पक्ष भी देखना आवश्यक है। यदि वर्तमान में हिंसा होती है, किन्तु उसके द्वारा भविष्य में अहिंसा की विपुल मात्रा परिलक्षित होती है, तो वह वर्तमान की हिंसा भी अहिंसा की साधक हो जाती है। इसके विपरीत यदि वर्तमान में अहिंसा अल्पमात्रा में है, किन्तु भविष्य में उससे प्रचुर मात्रा में हिंसा फूट पड़ने की स्थिति है, तो यह वर्तमान की क्षुद्र अहिंसा अहिंसा के साध ना क्षेत्र में नहीं आती है। अहिंसा का सही रूप
गहराई से विचार करने पर हम देखते हैं कि हिंसा के दो रूप चल रहे होते हैं। एक लम्बी खूखार हिंसा होती है और दूसरी, इस निर्दय एवं क्रूर हिंसा
को रोकने के लिए एक छोटी हिंसा होती है। यहाँ यही विचारणीय है कि क्या हम दोनों को एक समान हिंसा कह सकते हैं? नहीं ! स्पष्ट है कि एक लम्बी हिंसा अर्थात् एक बहुत बड़ी हिंसा को को रोकने के लिए जो एक छोटी हिंसा होती है-भले ही इसमें प्रत्यक्षतः प्रचण्ड हिंसा क्यों न होती हो-वह हिंसा की एकान्त श्रेणी में नहीं आ सकती। कल्पना कीजिए, शरीर में एक जहरीला फोड़ा हो गया है। उस फोड़े को साफ करना है। यदि उसे साफ नहीं किया जाता है
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तो सारा शरीर ही वर्बाद हो जाता है। एक अँगुली के जहर को निकालकर पूरे शरीर को बचाना होता है। इसके लिए जरूरी होने पर उस विषदिग्ध अंगूली को काटकर शरीर से अलग भी कर दिया जाता है और पूरे शरीर को समाप्त होने से बचा लिया जाता है। अभिप्राय यह है कि एक छोटे अंग का विष, जो पूरे शरीर में फैलकर जीवन को ही नष्ट करने वाला हो, तो उस समय एक हाथ, एक पैर या एक अंगुली को काटे जाने का मोह नहीं किया जाता। यह नहीं सोचा जाता कि उसे काटा जाए या नहीं काटा जाए। स्पष्ट है, सारे शरीर को बचाने के लिए एक अंग को काट दिया जाता है और सारे शरीर को बचा लिया जाता है। इस उदाहरण के संदर्भ में हमारी यह परम्परा है, जैन दर्शन के अनुसार कि जहाँ बड़ी हिंसा होने वाली है, या हो रही है, तो वहाँ छोटी हिंसा का जो प्रयोग है, वह एक प्रकार से अहिंसा का ही रूप है। हिंसा इसलिए है, चूँकि वह एक बड़ी हिंसा को रोकने के लिए है। वह हिंसा तो है, लेकिन इस हिंसा के पीछे दया छिपी हुई है, उसके मूल में करुणा छिपी हुई है और उसके पीछे एक महान् उदात्त भावना है कि यह जो बड़ी हिंसा हो रही है, उसे किसी तरह समाप्त किया जाए। इसी कारण इसको जैन दर्शन के अन्दर आदर दिया गया है। युद्ध और अहिंसा : और नैतिक आदर्श
विचार कीजिए कि रावण सीता को चुराकर ले जाता है। और विरोध में सीता के लिए रामचन्द्र जी लंका पर आक्रमण करते हैं। इस प्रकार एक भयंकर युद्ध हो जाता है। प्रश्न केवल एक सीता का है। और उसमें भी सीता को कोई कतल तो नहीं कर रहा था। सीता की कोई हिंसा तो हो नहीं रही थी। लेकिन विचारणीय तो यह है कि किसी को मार देना ही तो हिंसा नहीं कही जाती। बल्कि किसी के नैतिक जीवन को बर्बाद कर देना भी हिंसा है। क्योंकि अनैतिकता अपने आप में स्वयं हिंसा हो जाती हैं विचार कीजिए, रावण ने एक सीता का अपहरण कर जो सामाजिक अन्याय किया है, यदि उस अन्याय को नहीं रोका गया, तो अन्याय जनमानस पर हावी हो जाता है, न्याय की प्रतिष्ठा ध्वस्त हो जाती है, और उसकी देखादेखी भविष्य में और भी अन्याय फैल सकता है। इस दृष्टि से किया गया अन्याय का प्रतिकार धर्म के क्षेत्र में आता है।
राजनीति के अन्दर दण्ड की जो परम्परा है, वह भी इसलिए है कि जो अन्याय और अत्याचार का दायरा लम्बा होता है, फैलता जाता है, उस पर नियंत्रण
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किया जाए, क्योंकि यदि उसे नियंत्रित नहीं किया जाएगा तो वह निरंतर फैलता चला जाएगा। अतः उसको रोकने के लिए अमुक प्रकार के कदम उठाये जाते हैं, जिससे कि एक छोटे कदम के द्वारा, वह जो बड़े कदम के रूप में अन्याय, अत्याचार होने वाला है, उसको रोका जाए। प्रस्तुत प्रसंग में यदि केवल बाहर में ही स्थूल दृष्टि से देखा जाए, तो यही कहेंगे कि राम ने सीता के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। यह तो बहुत बड़ी हिंसा हो गई ! एक के लिए अनेकों का संहार ! लेकिन नहीं, यह तो एक छोटी हिंसा है। और वह जो उचित प्रतिकार न करने पर अन्याय-अत्याचार अनर्गल रूप पकड़ता, वह बड़ी हिंसा होती। तो, उस बड़ी हिंसा को रोकने के लिए ही युद्ध के रूप में यह छोटी हिंसा लाजमी हो गई थी। इसलिए राम की ओर से जो युद्ध लड़ा गया था, वह धर्मयुद्ध था। इसके विपरीत रावण की तरफ से जो युद्ध लड़ा गया, यह अधर्म युद्ध था। युद्ध एक ही है, और इसमें दोनों ओर हिंसा हुई है, दोनों ओर से मारे गए हैं लाखों आदमी। लेकिन एक धर्मयुद्ध माना जाता है और एक अधर्म युद्ध माना जाता है। ऐसा क्यों माना जाता है? ऐसा इसलिए माना जाता है कि राम के मन में एक उदात्त नैतिक आदर्श है। उनका युद्ध किसी अनैतिक धरातल पर नहीं है, किसी भोग-वासना की पूर्ति के लिए या राज्यलिप्सा के लिए नहीं है, बल्कि वह सतीत्व की रक्षा के लिए और अन्याय-अत्याचार की परम्परा को, जो कि जन-जीवन में बढ़ती जा रही है, रोकने के लिए है। इसी दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि यह जो वर्तमान में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का युद्ध चल रहा है, उसका भी यथोचित विश्लेषण किया जाना चाहिए। विश्लेषण के अभाव में हमारे यहाँ कभी-कभी काफी भयंकर भूलें हुई हैं। और उनके दुष्परिणाम भारत को हजारों वर्षों तक भोगने पड़े हैं। अहिंसा सम्बन्धी गलत धारणाएँ
हमारे समक्ष हिन्दू सम्राट् पृथ्वीराज का ज्वलंत उदाहरण है। कहा जाता है कि जब मोहम्मद गोरी भारत पर आक्रमण करने आया, उस समय भारत की शक्ति इतनी सुदृढ़ थी कि वह हार कर चला गया। वह फिर आया और फिर पराजित होकर लौट गया, फिर आया और फिर पराजित हुआ। इस प्रकार वह कई बार और पराजित हुआ। उस समय भारत की रणशक्ति बहुत बड़ी थीं। बड़े-बड़े रणबाँकुरे वीर थे यहाँ। अतः बार-बार उसे यहाँ आकर पराजित हो जाना पड़ा। किन्तु एक
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बार उसे पता लग गया कि ये जो हिन्दू हैं, गाय पर आक्रमण नहीं करते। अतः उस धूर्त ने क्या काम किया कि अपने नये आक्रमण में सेना के आगे गायों को रखा। आगे-आगे गायें चल रही थीं और पीछे-पीछे उसकी सेनाएँ युद्ध के लिए बढ़ रही थीं। अब यहाँ के वीर राजपूत धर्माधर्म की विचित्र उलझन में पड़ गए। उनमें अद्भुत शक्ति थी लड़ने की। कई बार गोरी को हराया भी था। लेकिन इस बार वे गड़बड़ा गए कि भाई, युद्ध तो कर रहे हैं, लेकिन यदि किसी गाय को बाण लग गया और गाय मर गई तो गो-हत्या का पाप लग जाएगा। और यह बहुत बड़ा भयंकर पाप हेगा। बस, इधर वीर रापजूत गायों को बचाने के विचार में उलझ गए और उधर शत्रु को तो कोई मतलब था नहीं इन बातों से। लड़ाई होती रही। गायों को बचाने के लिए राजपूत पीछे हटते रहे, निर्णायक प्रत्याक्रमण नहीं कर सके। परिणाम यह हुआ कि आखिर राजपूत सेना, जो विजय प्राप्त कर सकती थी, जिसमें भरपूर ताकत थी लड़ने की और विजय प्राप्त करने की, वह पराजित हो गई और देश गुलाम हो गया।
यहाँ यदि आप विश्लेषण करते हैं ठीक तरह से, तो विचार करना पड़ेगा कि यह जो गोहत्या के सम्बन्ध में चिन्तन था, वह कितनी गलत दिशा में था। वीर राजपुतों ने यह तो देखा कि वर्तमान में हमारे बाणों से सम्भव है कुछ गाये मर जाएँ, किन्तु उन्होंने भविष्य को नहीं देखा कि क्या होने वाला है? आनेवाले आक्रमणकारियों के लिए तो गाय-भैंस जैसा कुछ भी विचारणीय न था। यह सब तो उनके भक्ष्य ही थे। उन थोड़ी-सी गायों को मारने या बचाने के पाप पुण्य का अथवा हिंसा-अहिंसा का कोई मूल्य नहीं था उनकी दृष्टि में। अतः वे पूरी शक्ति से लड़े और जीते। इस युद्ध के सम्बन्ध में आप विचार करके देखेंगे तो आपको मालूम होगा कि उन थोड़ी बहुत गायों को बचाने का क्या अर्थ रहा? कुछ गायों की रक्षा के काम में वे पराजित हो गये देश गुलाम हो गया। इतिहास पर नजर डालिए, इसके बाद कितनी गोहत्याएँ हुईं, कितनी मानव हिंसाएँ हुई और कितने अनाचार-दुराचार और कितने पापाचार हुए हैं। देश मिट्टी में मिलता चला गया और भारत की भव्य संस्कृति, सभ्यता, कल्चर (Culture) सब कुछ समाप्त होती चली गई। धर्म परम्पराओं को कितनी क्षति पहुँची। धर्म परम्पराओं को इस तरह से बर्बाद किया गया कि उनका निर्मल रूप ही विकृत हो गया। केवल गायों का ही सवाल नहीं रहा। हजारों माताओं और बहनों की बेइज्जतियाँ भी हुईं। यह हिन्दू और मुसलमान का सवाल नहीं रहा। इस प्रकार के सवालों
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में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है और न अपने आप में ये कोई अच्छे सवाल ही हैं। सवाल तो सिर्फ इतना है कि समय पर अन्याय का उचित प्रतिकार न करने से भविष्य में क्या होता है? हिन्दू हो या मुसलमान, कोई भी हो, अन्याय का प्रतिकार होना चाहिए, केवल वर्तमान की हिंसा या अहिंसा को न देखकर, उसके भविष्य कालीन दूरगामी परिणामों को देखना चाहिए। वर्तमान की सीमित दृष्टि कभी-कभी सर्वनाश कर डालती है। राजा चेटक का धर्मयुद्ध
इस बड़ी और छोटी हिंसा के विश्लेषण को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं एक उदाहरण आपके समक्ष रख रहा हूँ-वह है कूणिक और चेडा राजा (राजा चेटक) के युद्ध का। भगवान् महावीर के समय का यह बहुत बड़ा भयानक युद्ध था, जिसका उल्लेख तत्कालीन धर्म परम्पराओं के साहित्य में है। सुप्रसिद्ध वैशाली गणतंत्र के मान्य अध्यक्ष राजा चेटक एक महान् बारह व्रतधारी श्रावक थे। दूसरी ओर मगध सम्राट कूणिक थे, जिसने कि वैशाली पर आक्रमण किया था। उक्त युद्ध के मूल में एक शरणागत का प्रश्न था। प्रसंग यह है कि कणिक अपने छोटे भाई के हक को छीन रहा था, उसकी स्वतंत्रता और सम्पत्ति को हड़प रहा था। राजकुमार पर भय छा गया। वह अपने बचाव के लिए चेटक राजा के पास पहुँच गया, शरणागत के रूप में। कूणिक को जब यह मालूम हुआ कि वह वैशाली में चेटक राजा के पास पहुँच गया है, तो उसने चेटक राजा को यह कहलवाया कि-"तुम उसको यों का यों वापस लौटाओ, अन्यथा , इसके लिए तुम्हें युद्ध का परिणाम भोगना पड़ेगा।" राजा चेटक ने शरणागत की रक्षा में युद्ध का वरण किया। भयंकर युद्ध हुआ, लाखों ही वीर काल के गाल में पहुँच गए। स्वयं चेटक नरेश भी वीरगति को प्राप्त हुए। अब प्रश्न है एक शरणागत की रक्षा का। अगर राजा चेटक उस एक शरणागत को लौटा देता, भले ही उसके साथ कुछ भी करता क्रुद्ध कणिक, तो लाखों ही लोगों के प्राणों की रक्षा हो जाती। यदि राजा चेटक हिंसा अहिंसा का वह विश्लेषण करता, जैसा कि आजकल कुछ लोग अपने मस्तिष्क में इस प्रकार की विचारधारा रखते हैं, तो उसके मुताबिक वह अवश्य ही राजकुमार को वापस लौटा देता। कह देता कि"भाई तू यहाँ चला तो आया है। लेकिन तेरी रक्षा कैसे कर सकता हूँ? तेरी एक की रक्षा में, लाखों आदमी युद्ध में मारे जाएँगे। एक के बचाने में लाखों आदमी मारे जाने पर तो बहुत बड़ी हिंसा हो जाएगी।" परन्तु राजा चेटक ने ऐसा कुछ
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नहीं सोचा, ऐसा कुछ नहीं कहा। उसने शरणागत की रक्षा के लिए युद्ध किया, जो महाभारत जैसा ही एक भयंकर युद्ध था।
अब सवाल यह है कि राजा चेटक बारह व्रती श्रावक है, उसका हिंसा-अहिंसा से सम्बन्धित चिन्तन काफी सूक्ष्म रहा है, प्रभु महावीर की वाणी सुनने का कितनी ही बार उसको सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वह कोई साधारण नरेश नहीं है, तत्कालीन वैशाली के विशाल गणतंत्र का चुना गया अध्यक्ष है। इसका अर्थ है कि वे अपने युग के एक महान् चिंतनशील व्यक्ति थे। उन्होंने हिंसा अहिंसा के प्रश्न को व्यक्तियों की संख्या पर हल नहीं किया। उन्होंने अपने ध र्म-चिन्तन के प्रकाश में स्पष्ट देखा कि यह शरणागत है, साथ ही निरपराध है, उसका कोई अपराध नहीं है, और उस निरपराध के हक को छीन रहा है मदान्ध कूणिक । अत: यह एक शरणागत का प्रश्न ही नहीं है, अपितु निरपराध के उत्पीड़न का भी प्रश्न हैं और इस तरह से शरण में आये को, पीड़ित जन को यदि कोई वापिस लौटा दे, ठुकरा दे तो उसे कहाँ आश्रय मिलेगा? कल्पना कीजिए, एक इंसान चारों तरफ से घिर जाता है, सब ओर से मौत आ घेरती है, भयंकर निराशा के क्षण होते हैं। उक्त निराशा के क्षणों में वह एक बड़ी शक्ति के पास पहुँचता है कि उसे शरण मिलेगी। लेकिन वहाँ उसे ठुकरा दिया जाता है, फिर दूसरी जगह जाता है, वहाँ से भी ठुकरा दिया जाता है। अब कल्पना कीजिए, उसको कितनी पीड़ा हो सकती है ! उस समय उसका मन कितना हताश हो जाता है। आँखों से आँसू बह रहे है, पर कोई पूछने वाला नहीं कि क्या बात है, क्यों रोता है? स्पष्ट है, इस स्थिति में दुनियाँ में न्याय का कोई प्रश्न ही नहीं रहा, किसी पीड़ित की रक्षार्थ करुणा और दया का कोई सवाल ही नहीं रहा। तो, इस तरह पीड़ित एवं अत्याचार से त्रस्त लोगों को समर्थ व्यक्ति भी धक्के देते रहें तो आपके इस अहिंसा और दयाधर्म का, इस धर्म और कर्मकाण्ड का क्या महत्त्व रह जाता है ?
अभिप्राय यह है कि यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। यह एक का या हजार का सवाल नहीं है। वह एक व्यक्ति की हिंसा या दासता का सवाल भी नहीं है, बल्कि यह आदर्शों का सवाल है। यदि एक ओर एक उच्च आदर्श की हत्या होती है, दूसरी ओर आप हजार - लाख प्राणी बचा भी लेते हैं, तो उनका कोई मूल्य नहीं रहता है। क्योंकि आदर्श की हत्या सबसे बड़ी हत्या है। यदि आदर्श की हत्या हो जाती है, तो हजारों-लाखों वर्षों तक वह एक उदाहरण बनता
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चला जाता है अन्याय और अत्याचार का। और इस प्रकार के उदाहरण यदि संसार में बढ़ जाएँ, तो फिर तो संसार की कोई स्थिति नहीं रहेगी।
वैशाली के उपुर्यक्त युद्ध की एक बात विचारणीय यह है कि चेटक और कूणिक दोनों युद्ध करते हैं। दोनों ओर से हिंसा होती है, भयंकर नरसंहार होता है, लेकिन राजा चेटक भयंकर युद्ध में वीर गति प्राप्त करता है और मरकर स्वर्ग में जाता है। और राजा कूणिक जब मरता है, तो आप जानते है, कहाँ जाता है? नरक में। क्या बात है कि एक ही चीज के दो विभिन्न परिणाम होते हैं। युद्ध एक ही लड़ा गया, लेकिन दो परस्पर विरोधी नतीजे कैसे आये? दोनों ने भरपूर हिस्सा लिया युद्ध में दोनों बराबर के साक्षीदार हैं युद्ध के। और जब दोनों साझीदार हैं युद्ध के, तो फिर परिणाम भिन्न-भिन्न कैसे आ गए? नतीजे अलग-अलग कैसे आए? तो स्पष्ट है कि ये जो भिन्न-भिन्न नतीजे आये हैं, ये आए हैं हिंसा और अहिंसा के विश्लेषण के आधार पर। अभिप्राय यह है कि शरणागत की रक्षा करना धर्म है। क्योंकि वह भय से त्रस्त होता है, अन्याय से आक्रान्त होता है, मौत उसके सिर पर बुरी तरह मँडरा रही होती है। वह किसी के पास रक्षा पाने के लिए जाता है। अब बात यह है कि उसकी रक्षा करना क्या है? एक आदर्श की रक्षा करना है, एक नैतिक पक्ष का समर्थन करना है। जो पीड़ित है, भय से त्रस्त है, दुःखित है, निरपराध है, बेचारे ने कोई दोष किया नहीं है, उसको आश्रय देना आवश्यक है। हमारी भारतीय परम्परा का यह आदर्श है बहुत बड़ा। और भारतीय परम्परा ही क्यों, सारी मानवता का आदर्श है यह। आप जिसे मानवता कहते हैं, जिसे इंसानियत कहते हैं, यह उसका आदर्श है। तो, राजा चेटक ने इस आदर्श की रक्षा की, इसलिए वह स्वर्ग में गया। और कूणिक जो लड़ा, वह लड़ा किसके लिए? अपने स्वार्थ के लिए, अपने अहंकार के लिए और अन्याय-अत्याचार के द्वारा अपने भाई का हक छीनकर उसे बर्बाद करने के लिए, एक सर्वथा निकृष्ट आधार पर लड़ा है। अतः वह जैन शास्त्रानुसार नरक में जाता है। प्रश्न है दोनों में से धर्मयुद्ध किसने लड़ा? राजा चेटक ने धर्मयुद्ध लड़ा। इसलिए वह स्वर्ग में गया है और कूणिक ने भी युद्ध को लड़ा, लेकिन वह अधर्मयुद्ध लड़ने के कारण नरक में गया है। यह बात यदि आपके ध्यान में स्पष्ट हो जाती है, तो विचार कीजिए कि हिंसा
और अहिंसा के प्रश्न केवल बाहर में नहीं सुलझाए जाते हैं, वे सुलझाये जाते हैं अन्दर में, अन्दर के चिंतन में। प्रवृत्ति का मूल वृत्ति में है. अतः वृत्ति में ही हिंसा-अहिंसा का विश्लेषण होना चाहिए।
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शरणागत रक्षा: आज के सन्दर्भ में
जैसा कि आपने ऊपर राजा चेटक की शरणागत वत्सलता की बात देखी है, आज भी वह बात ज्यों की त्यों है आपके समक्ष । और तब तो केवल एक शरणागत का सवाल था और अब तो एक करोड़ के लगभग प्रताड़ित, अतएव विस्थापित बंगाली शरणार्थियों का सवाल है । विचार कीजिए, इन शरणार्थियों में माताएँ भी हैं, बहनें भी हैं, बुड्ढे भी हैं, बच्चे भी हैं, बच्चियाँ भी हैं, नौजवान भी हैं। क्रूर पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा भयंकर मौत उन सबके सिर पर मँडरा रही है, और सिर्फ मौत ही नहीं, उनके नैतिक आदर्शों की भी हत्या हो रही है। मानवता को लजा देने वाले दुराचार हो रहे हैं, विभिन्न प्रकार के पापाचार हो रहे हैं। उन्हें एक पशु के समान भी नहीं समझा जा रहा है। यदि कोई पशु को मारता है, तो थोड़ी-बहुत दया तब भी रखी ही जाती है। पशुहत्या के सम्बन्ध में भी कुछ नियम हैं कि उनका क्रूरतापूर्ण वध नहीं होना चाहिए। लेकिन इन विस्थापितों के प्रति तो इतनी निर्दयता की गई कि घर-बार सब कुछ छोड़कर वे यहाँ आये ? स्पष्ट है, भयत्रस्त व्यक्ति जायेगा कहाँ ? वहीं तो जाएगा, जहाँ उसे शरण पाने का भरोसा होगा ! कुछ लोग कहते हैं कि भारत सरकार ने प्रधानमंत्री इन्दिराजी ने गलती की, जो इन सबको अपने यहाँ रख लिया । न रखते, न झगड़ा होता और न युद्ध की नौबत आती । बेकार का सिरदर्द मोल ले लिया । मैं पूछता हूँ, बंगाल के विस्थापित यहाँ भारत में कैसे आए? पीछे से उन पर गोली चलाई जा रही थी। अतः प्राण के रक्षा के लिए भारत के द्वार पर आए। और किसी तरह से तो वे रुक नहीं सकते थे। यदि इधर से भी बंदूक तान दी जाती कि खबरदार इध र आए तो। पीछे लौटो, नहीं तो गोली मार दी जाएगी ! विचार कीजिए, ऐसी स्थिति में, जब कि पीछे से गोली चल रही हो और आगे से भी गोली चलने लगे, तो बेचारा शरणागत कहाँ जाए? क्या करे? ऐसी स्थिति में आपका धर्म क्या कहता है ? आपकी मानवता क्या कहती है ?
भारतवर्ष की संस्कृति और सभ्यता को आदिकाल से ही अपने इस शरणागत रक्षा के धर्म पर गौरव है। इसी पर हिन्दू धर्म को गौरव है, जैनधर्म को गौरव है और जितने भी अन्य धर्म हैं - सबको गौरव है । और, जिसके सम्बन्ध में हम सब लाखों वर्षों से बड़े-बड़े गर्वीले नारे लगाते आ रहे हैं तो क्या अब वर्तमान स्थिति में भारत अपने उस शरणागत रक्षा के पवित्र धर्म को तिलांजलि
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दे दे? नहीं, यह नहीं हो सकता। हिंसा और अहिंसा की गलत धारणाओं के चक्र में उलझकर जो धर्म बंगलादेश की प्रस्तुत समस्या से अपने को तटस्थ रखने की बात करते हैं, तो मैं पूछता हूँ, वे धर्म हैं, तो किसलिए हैं? उनका मानवीय मूल्य क्या है? क्या उनका मूल्य केवल यही है कि कीड़े-मकोड़े को बचाओ, छापे-तिलक लगाओ, मंदिर में घण्टा बजाओ, भजन-पूजन करो। यह सब तो साधना के बाह्यरूप भर हैं। यदि मूल में मानवता नहीं है तो यह सब मात्र एक पाखण्ड बनकर रह जाता है। सच्चा धर्म मानवता को विस्मृत नही कर सकता। कौन ध र्म ऐसा कहता है कि द्वार पर आने वाले उत्पीड़ित शरणार्थियों का दायित्व न लिया जाए? उन्हें आश्रय न दिया जाए? कहा है कि एक व्यक्ति, जो कि किसी को पीड़ित कर रहा है, वह पाप कर रहा है। लेकिन पीड़ित व्यक्ति अपनी प्राण रक्षा के लिए बहुत बड़े भरोसे के भाव से किसी के पास शरण लेने के लिए आए और यदि वह उस शारणागत की रक्षा के लिए प्रयत्नशील नहीं होता है, तो वह उस उत्पीड़क से भी बड़ा पापी है, जिसने कि अत्याचार करके उसको मार भगाया है। एक त्रस्त व्यक्ति विश्वास लेकर आपके पास आया है कि यहाँ उसकी सुरक्षा होगी और उसी विश्वास का आपकी ओर से यदि घात हो जाए, तो कल्पना कीजिए, उसकी कितनी भयावह स्थिति होती है ! समर्थ होते हुए भी आपने उसके लिए कुछ किया नहीं, उलटा उसे धक्का दे दिया, तो यह एक प्रकार का विश्वासघात ही तो हुआ। और विश्वासघात बहुत बड़ा पाप है। किसी को अभय देना, एक महान् धर्म है और अभय देने से किसी भयाक्रान्त को इन्कार कर देना बहुत बड़ा अधर्म है। बंगलादेश के एक करोड़ के लगभग पीड़ित विस्थापितों को अभय देकर भारत ने वह महान् सत्कर्म किया है, जो विश्व इतिहास में अजर-अमर रहेगा।
यह बहुत बड़ी दैवी कृपा हुई कि बंगलादेश के पीड़ितों ने आपके ऊपर भरोसा किया। और, यह जानी हुई बात है कि भरोसा किसी साधारण व्यक्ति पर नहीं किया जाता। पास में अन्य देश भी थे, लेकिन वहाँ पर कोई नहीं गया, सभी भारत में ही आए। क्यों आए? इसका तात्पर्य यह है कि इसका गौरव उन्होंने एकमात्र आपको दिया। उनको भरोसा था कि वहाँ भारत में उनकी ठीक-ठीक रक्षा होगी। और इतना बड़ा विश्वास लेकर कोई जनता आए और फिर उसे आप ठुकरा दें, धक्का दे दें, तो यह कितना बड़ा पाप है? आप भाग्यशाली थे कि आप
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से यह पाप न हुआ। भारत की सांस्कृतिक परम्परा का उज्ज्वल गौरव आपके हाथों में सुरक्षित रहा। आप वैयक्तिक तुच्छ स्वार्थों के अन्धकार में नहीं भटके। बहुत बड़ा दायित्व अपने ऊपर लिया और उसे प्रसन्नता से निभाया।
अभिप्राय यह है कि ऐसा समय इतिहास में कभी-कभी ही आता है। जैसा कि मैंने बताया, चेटक ने तो एक शरणागत की रक्षा के लिए इतना बड़ा भयंकर युद्ध किया। हिंसा हुई, फिर भी भगवान् महावीर कहते हैं कि वह स्वर्ग में गया और आपने तो लाखों-करोड़ों इन्सानों की रक्षा की है, और इसी कारण आपको यह युद्ध भी करना पड़ा है, अन्यथा आपके सामने तो युद्ध का कोई सवाल ही नहीं था। भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी, समूची राष्ट्र शक्ति को साथ लिए आज जो जूझ रही हैं, उसके मूल में उन्हीं पावन भारतीय आदर्शों की रक्षा का प्रश्न है। कहना तो यों चाहिए कि ढाई हजार वर्ष बाद इतिहास ने अपने आपको दुहराया है। यानी भगवान् महावीर के युग की वह घटना आज फिर से दुहराई जा रही है और यदि महावीर आज धरती पर होते तो क्या निर्णय देते इस सम्बन्ध में? प्रभु महावीर आज धरती पर निर्णय देने को नहीं हैं, तो क्या बात है? उनका जो निर्णय है, वह हमारे सामने है। आज जो फैसला लेना है, उनके द्वारा वह फैसला दिया ही जा चुका है। इसका अर्थ यह है कि वर्तमान के नये जजों के फैसले में अतीत के पुराने जजों के फैसले निर्णायक होते है। अभिप्राय यह है कि भगवान् महावीर ने जो फैसला दिया था, कि राजा चेटक स्वर्ग में गया और कूणिक नरक में-बिलकुल स्पष्ट है कि यदि आज के इस संघर्ष को लेकर इंदिराजी के सम्बन्ध में पूछे तो प्रभु महावीर का वही उत्तर है, जो वे ढाई हजार वर्ष पहले ही दे चुके हैं। तात्पर्य यह है कि यह युद्ध शरणागतों की रक्षा का युद्ध है, अतः भारतीय चिन्तन की भाषा में धर्मयुद्ध है और धर्मयुद्ध अन्ततः योद्धा के लिए स्वर्ग के द्वार खोलता है-'स्वर्गद्वारमपावृतम्'। यह वह केन्द्र है, जहाँ भारत के प्रायः सभी तत्त्वदर्शन और धर्म एकमत हैं।
मैं यह जो विश्लेषण कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ? इसका कारण यह है कि अहिंसा-हिंसा के विश्लेषण का दायित्व जैन समाज के ऊपर ज्यादा है, चूँकि जैन परम्परा का मूलाधार ही अहिंसा है। भगवान् महावीर ने अपने तत्त्वदर्शन में हिंसा और अहिंसा का विश्लेषण किस आधार पर किया है? भगवान् के अहिंसा दर्शन की आधारशिला कर्ता की भावना है। बात यह है कि ये जो युद्ध
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होते हैं, हिंसाएँ होती हैं, आदमी मरते हैं, इन सबको गिनने का कोई सवाल नहीं है। सवाल तो सिर्फ यह है कि आप जो युद्ध कर रहे हैं, वह किस उद्देश्य से कर रहे हैं। आपके संकल्प क्या है? आपके भाव क्या हैं? आपका आन्तरिक परिणमन क्या है? राम युद्ध करते हैं, रावण से। राम का क्या संकल्प है ? नारी जाति पर होने वाले अत्याचारों का प्रतिकार करना ही तो ! राम के समक्ष एक सीता का ही सवाल नहीं है अपितु हजारों पीड़ित सीताओं के उद्धार का सवाल है। राम एक आदर्श के लिए लड़ते हैं। और रावण जो युद्ध कर रहा है, उसका क्या संकल्प है? उसका संकल्प है वासना का, दुराचार का । पाण्डव युद्ध कर रहे हैं श्रीकृष्ण के नेतृत्व में किसलिए? केवल अपने न्यायप्राप्त अधिकार के लिए | दूसरी ओर दुर्योधन भी युद्ध कर रहा है। किन्तु वह किस संकल्प से कर रहा है? पाण्डवों के न्याय प्राप्त अधिकारों को हड़पने के लिए। ये सारी चीजें विचार करके यदि आप देखेंगे तो इन सबका निर्णय अन्तर्जगत् के अन्दर जाकर हो जाता है। अंतर्जगत् के अंदर क्या परिणमन है, यह है विचारणीय प्रश्न ! जैसा कि मैंने पहले बताया है कि कभी द्रव्य हिंसा होती है, भावहिंसा नहीं होती। कभी भावहिंसा होती है, द्रव्यहिंसा नहीं होती। कभी दोनों ही होती हैं। उक्त चर्चा में भाव हिंसा ही वस्तुतः हिंसा का मूलाधार है। और भावहिंसा में भी हमें यह देखना पड़ेगा कि बड़ी हिंसा को रोकने के लिए, जो छोटी हिंसा कर रहे हैं, वह आवश्यक है या अनावश्यक ? स्पष्ट है कि जीवन में कुछ प्रसंग ऐसे आते हैं कि यह बिल्कुल आवश्यक हो जाती है। बहुत बड़े अत्याचार, अनाचार, दुराचार, अन्याय एवं अधर्म को रोकने के लिए विचारों को छोटी हिंसा का आश्रय लेना ही होता है। समाज और राष्ट्र के प्रश्न का समाधान यों ही बेतुकी बातों से कभी नहीं होता है।
हिंसा केवल शरीर की ही हिंसा तो नहीं है। मन की हिंसा भी बहुत बड़ी हिंसा होती है। विचार कीजिए कि जब देश गुलाम हो जाए और जनता पराधीनता के नीचे दब जाए, तो ऐसी स्थिति में उसके शरीर की हिंसा ही नहीं, सबसे बड़ी मन की हिंसा भी होती है। पराधीन जनता का मानसिक स्तर, , बौद्धिक स्तर, जीवन के उदात्त आदर्श, गुलामी के अन्दर इस तरह से पिस- पिसकर खत्म हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं कि वह केवल एक मृत ढाँचा भर रह जाता है। पराध ीन राष्ट्र के धर्मों, परम्पराओं एवं संस्कृतियों के अन्दर से प्राण निकल जाते हैं, और वे केवल सड़ती हुई लाश भर रह जाते हैं। भारत यह सब देख चुका है।
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द्वितीय पुष्प
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गाँधी युग फिर दुहराया है
सभी जानते है कि जब विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा भारत पर आक्रमण हुआ, तब देश कितना पददलित हुआ था। कितने निम्न स्तर पर चला गया था और किस प्रकार हमारी नैतिक चेतना शमित हो गई थी ! यह जो फिर से दोबारा जान आई है देश के अन्दर। आप सबको मालूम है, वह गाँधीजी द्वारा आई है। अन्याय-अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए आवाज उठी है, जनता में नई प्रेरणाएँ जगीं, अहिंसा एवं सत्य के माध्यम से स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा गया
और विश्व की एक बहुत बड़ी शक्ति-ब्रिटिश साम्राज्य को पराजित कर राष्ट्र स्वतंत्र हुआ। और सौभाग्य की बात है कि स्वतंत्रता का युद्ध लड़ने वाला सेनापति अपने युग का एक महान् अहिंसावादी था। पर, वह ऐसा अहिंसावादी था, जो अहिंसा के मूल अर्थ को समझता था। वह अहिंसा के प्रचलित सीमित अर्थ तक ही नहीं रुका हुआ था, बल्कि वह अहिंसा को भूत, भविष्य, वर्तमान के व्यापक धरातल पर परखता था।
अहिंसा के विस्तृत आयाम पर गाँधीजी की दृष्टि थी। यही कारण है कि जब काश्मीर पर प्रथम पाकिस्तानी आक्रमण हुआ, तो उनसे पूछा गया कि काश्मीर की रक्षा के लिए सेनाएँ भेजी जाएँ या नहीं? तो उन्होंने यह नहीं कहा कि सेना न भेजो, यह हिंसा है, यदि कुछ करना है तो वहाँ जाकर सत्याग्रह करो। ऐसा क्यों नहीं कहा उन्होंने? इसलिए कि सत्याग्रह सभ्य पक्ष के लिए होता है। विरोध । भले ही हो, किन्तु सभ्य विरोधी सत्याग्रह जैसे सात्त्विक प्रयासों से प्रभावित होता है। परन्तु जो असभ्य बर्बर होते हैं, उनके लिए सत्याग्रह का कोई मूल्य नहीं होता। खूख्वार भेड़ियों के सामने सत्याग्रह क्या अर्थ रखता है? ब्रिटिश जगत् कुछ और था, जिसके सामने सत्याग्रह किया गया था। वह फिर भी एक महान् सभ्य जाति थी! किन्तु याह्याखाँ और उसके पागल सैनिकों के समक्ष कोई सत्याग्रह करे, तो उसका क्या मूल्य हो? याह्याखाँ का क्रूर सैनिक दल बाँगला देश में मासूम बच्चों का कत्ल करता है, महिलाओं के साथ खुली सड़कों तक पर बलात्कार करता है, गाँव के गाँव जलाकर राख कर डालता है, हर तरफ निरपराध बच्चे, बूढ़े, नौजवान और स्त्रियों की लाशें बिछा देता है, इसका मतलब यह कि वह युद्ध नहीं लड़ रहा है। वह तो हिंसक पशु से भी गई-बीती स्थिति पर उतर आया है। प्रश्न है, इस अन्याय के प्रतिकार के लिए क्या किया जाए? अहिंसा
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________________ की दृष्टि से विचार करें तो क्या होना चाहिए? युद्ध या और कुछ? क्रूर दरिंदों के समक्ष और कुछ का तो कुछ अर्थ ही नहीं रह गया है। युद्ध ही एक विकल्प रह गया है, जो चल रहा है। यह आक्रमण नहीं, प्रत्याक्रमण है। और, जैसा कि चेटक और कूणिक का उदाहरण आपके सामने रखा कि चेटक युद्ध करके स्वर्ग में गया है, चूँकि उसने शरणागत की रक्षा के लिए आक्रमणकारी से धर्मयुद्ध लड़ा था, और कूणिक युद्ध करके नरक में गया है, चूँकि उसने न्यायनीति को तिलांजलि देकर अधर्मयुद्ध लड़ा था। आज आपके सामने ठीक वही प्रश्न यथावत है कि आप भी शरणागतों की रक्षा के प्रश्न पर युद्ध के लिए ललकारे गये हैं, युद्ध करने को विवश किये गये हैं। प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने बड़े धैर्य से काम लिया है, करोड़ों विस्थापितों का वह भार उठाया है, जो देश के अर्थतंत्र को चकनाचूर कर देता है। आठ-आठ महीने प्रतीक्षा की है कुछ सुधार हो जाए, विश्व के प्रमुख राष्ट्रों को जा-जाकर सही स्थिति समझाई है। परन्तु जब कुछ भी परिणाम नहीं आया और पाकिस्तान की दु:साहसी सैनिक टोली ने रणभेरी बजा ही दी, तो इन्दिराजी ने भी उत्तर में रण दुन्दुभी बजा दी है, भारत के नौजवान सीमा पर जूझ रहे हैं। युद्ध हो रहा है। भारतीय तत्त्वचिन्तन के आधार पर यह धर्मयुद्ध है और अन्ततः विजय धर्मयुद्ध की ही होती है। “यतो धर्मस्ततो जयः"-जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। 'सत्यमेव जयते, नानृतम्' सच्चाई की ही विजय होती है, झूठ की नहीं। 90 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्य