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________________ होते हैं, हिंसाएँ होती हैं, आदमी मरते हैं, इन सबको गिनने का कोई सवाल नहीं है। सवाल तो सिर्फ यह है कि आप जो युद्ध कर रहे हैं, वह किस उद्देश्य से कर रहे हैं। आपके संकल्प क्या है? आपके भाव क्या हैं? आपका आन्तरिक परिणमन क्या है? राम युद्ध करते हैं, रावण से। राम का क्या संकल्प है ? नारी जाति पर होने वाले अत्याचारों का प्रतिकार करना ही तो ! राम के समक्ष एक सीता का ही सवाल नहीं है अपितु हजारों पीड़ित सीताओं के उद्धार का सवाल है। राम एक आदर्श के लिए लड़ते हैं। और रावण जो युद्ध कर रहा है, उसका क्या संकल्प है? उसका संकल्प है वासना का, दुराचार का । पाण्डव युद्ध कर रहे हैं श्रीकृष्ण के नेतृत्व में किसलिए? केवल अपने न्यायप्राप्त अधिकार के लिए | दूसरी ओर दुर्योधन भी युद्ध कर रहा है। किन्तु वह किस संकल्प से कर रहा है? पाण्डवों के न्याय प्राप्त अधिकारों को हड़पने के लिए। ये सारी चीजें विचार करके यदि आप देखेंगे तो इन सबका निर्णय अन्तर्जगत् के अन्दर जाकर हो जाता है। अंतर्जगत् के अंदर क्या परिणमन है, यह है विचारणीय प्रश्न ! जैसा कि मैंने पहले बताया है कि कभी द्रव्य हिंसा होती है, भावहिंसा नहीं होती। कभी भावहिंसा होती है, द्रव्यहिंसा नहीं होती। कभी दोनों ही होती हैं। उक्त चर्चा में भाव हिंसा ही वस्तुतः हिंसा का मूलाधार है। और भावहिंसा में भी हमें यह देखना पड़ेगा कि बड़ी हिंसा को रोकने के लिए, जो छोटी हिंसा कर रहे हैं, वह आवश्यक है या अनावश्यक ? स्पष्ट है कि जीवन में कुछ प्रसंग ऐसे आते हैं कि यह बिल्कुल आवश्यक हो जाती है। बहुत बड़े अत्याचार, अनाचार, दुराचार, अन्याय एवं अधर्म को रोकने के लिए विचारों को छोटी हिंसा का आश्रय लेना ही होता है। समाज और राष्ट्र के प्रश्न का समाधान यों ही बेतुकी बातों से कभी नहीं होता है। हिंसा केवल शरीर की ही हिंसा तो नहीं है। मन की हिंसा भी बहुत बड़ी हिंसा होती है। विचार कीजिए कि जब देश गुलाम हो जाए और जनता पराधीनता के नीचे दब जाए, तो ऐसी स्थिति में उसके शरीर की हिंसा ही नहीं, सबसे बड़ी मन की हिंसा भी होती है। पराधीन जनता का मानसिक स्तर, , बौद्धिक स्तर, जीवन के उदात्त आदर्श, गुलामी के अन्दर इस तरह से पिस- पिसकर खत्म हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं कि वह केवल एक मृत ढाँचा भर रह जाता है। पराध ीन राष्ट्र के धर्मों, परम्पराओं एवं संस्कृतियों के अन्दर से प्राण निकल जाते हैं, और वे केवल सड़ती हुई लाश भर रह जाते हैं। भारत यह सब देख चुका है। • 88 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212402
Book TitleDharmyuddha Ka Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf
Publication Year2009
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size951 KB
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