Book Title: Dharmratna Karanda Tika Part 01
Author(s): Vardhamansuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 402
________________ 401 धर्मः / // 14 // अतः श्रावकधर्मो मे / सुकरः प्रतिजासते // तेनेदमेव में देहि / कृत्वानुग्रहमंजसा / / | // 35 // ततः सम्यत्त्वमूलं सा / पंचाणुव्रतसंयुतं / / सप्तशिदावतोपेत / गृहिधर्म सदुत्तमं / / 6 / / ददौ तस्यै विधानेन / सापि जग्राह नावतः // द्रव्यायनिग्रहांश्चैव / प्रतिपन्ना तदंतिके / / 7 / / युग्मं // गृहीत्वा ब्रह्मचर्य च / यद्वनेऽपि दुष्करं // पालयंती प्रयत्नेन / कामनोगेषु निःस्पृहा / / // 70 // सस्पृहा मोदसौख्येन्यः / सदनुष्टानतत्परा // संसारवासनिर्विष्ठा / गमयतिस्म वासरान / / // 7 // ततः कुबेरदत्तापि / साध्वी साध्वीसमन्विता // तत्रत्यजरिलोकानां / कृत्वानुग्रहमुत्तमं / // 70 // कुर्वती चंडिकेवोच्चै-भव्यकैरवबोधनं / परोपकारताहेतो-जिहार महीतले // 1 // एनां समाकर्ण्य कुबेरसेना-वक्तव्यतां नव्यविवेकदात्री / निरस्य निःशेषजवानिनंदितां / सुसा. धुधर्मे कुरुतादरं जनाः // 2 // उक्तः संसारासारताधिकारः // // इति श्रीवर्धमानसूरिविरचितायां श्रीधर्मरत्नकरंडटीकायां प्रथमो नागः समाप्तः // श्रीरस्तु / / // समाप्तोऽयं ग्रंथो गुरुश्रीमचास्त्रिषिजयसुप्रसादात् // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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