Book Title: Dharmbindu Prakaranam
Author(s): Munichandracharya
Publisher: Agamoday Samiti
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________________ जिनव धर्मबिन्दु अष्टमाध्यायः // 16 // ततः-श्रद्धामृतास्वादनमिति // 21 // (502) सूक्ष्मभावेष्वेव या श्रद्धा-रुचिः सैवामृत-त्रिदशभोजनं तस्यास्वादनं हृदयजिव्हया समुपजीवनमिति // 21 // ततः-सदनुष्ठानयोग इति // 22 // (503) सदनुष्ठानस्य-साधुगृहस्थधर्माभ्यासरूपस्य योगा-सम्बन्धः // तत:-परमापायहानिरिति // 23 // (504) 'परमा' प्रकृष्टा 'अपायहोनिः' नरकादिकुगतिप्रवेशलभ्यानर्थसार्थोच्छेदः // 23 // ततोऽपि उपक्रियमाणभव्यपाणिनां यत् स्यात् तदाह सानुबन्धसुखभाव उत्तरोत्तरः प्रकामप्रभूतसत्त्वोपकाराय अवयकारणं निवृतेरिति // 24 // 505) सानुबन्धसुखभावः 'उत्तरोत्तरः' उत्तरेषु-प्रधानेषत्तर:-प्रधानः प्रकामः-प्रौढः प्रभूत:-अतिबहुः यः सत्त्वोपकार: तस्मै संपद्यते, स च 'अवन्ध्यकारणं' अवन्थ्यो हेतुः निर्वतेः-निर्वाणस्य // 24 // निगमयन्नाह ___ इति परं परार्थकरणमिति // 25 // (506) 'इति' एवं यथा मागुक्तं परं परार्थकरणं तस्य भगवत इति // 26 // साम्प्रतं पुनरप्युभयोःसाधारणं धर्मफलमाह भवोपग्राहिकर्मविगम इति / / 26 // (507) परिपालितपूर्वकोट्यादिप्रमाणसयोगकंवलिपर्याययोरन्ते भवोपग्राहिकर्मणां-वेदनीयायुर्नामगोत्ररूपाणां विगमो-नाशो // 16 //

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